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कारिका ४१-४२-४३-४४ ]
प्रशमरतिप्रकरणम् हसितम् ' इत्यर्थः । कटाक्षः-अपाङ्गसान्निवेशितदृष्टिः सामर्षा । एभिर्विशेषणैः विक्षिप्तः प्रेरितो वनितारूपादौ निवेशितचक्षुः शलभ इव विपद्यते विनश्यति । शलभो हि दीपशिखावलोकनाक्षिप्तोऽभिमुखः पतितः तत्रैव भस्मसाद् भवतीति ॥ ४२ ॥
अर्थ-मदमाती गति, प्रेमभरी चितवन, मुख, जाँघ वगैरह अवयव, मदभरी हँसी तथा कटाक्षसे पागल हुआ मनुष्य स्त्रीके रूपपर आसक्त होकर पतङ्गकी तरह विपत्तिका शिकार बनता है।
भावार्थ-जिस प्रकार पतङ्ग दीप-शिखापर मुग्ध होकर उसीमें जलकर राख हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य भी स्त्रीकी प्रेमभरी चेष्टाओं और उसके रूपपर मुग्ध होकर अपना सब कुछ गँवा बैठते हैं।
स्नानाङ्गरागवर्तिकवर्णकधूपाधिवासपटवासैः।
गन्धभ्रमितमनस्को मधुकर इव नाशमुपयाति ॥ ४३ ॥
टीका-कतिपयसुरभिद्रव्यसमाहारः स्नानम् । अङ्गरागः-चन्दनकुंकुमादिविलेपनम् । धूपद्रव्यकृता वैतिरेव वर्तिका । (सैव धूपो वर्तिकाधूप एवासौ संजायते।) सैव दह्यमाना धूपायते । वर्णकाः कृष्णादयः। अधिवासो मालतीकुसुमादिभिः । पटवासो गन्धद्रव्यचूर्णः । एभिः स्नानादिभिर्गन्धैः भ्रमितम्- आक्षिप्तं मनो यस्यासौ गन्धभ्रमितमनस्कः । मधुकरः शिलीमुख इव विनाशं प्राप्नोति । सुरभिणा पद्मगन्धेन आकृष्टश्चञ्चरीकस्तन्मध्यवर्तिगन्धमाजिघ्रन्नस्तमिते सवितरि संकुचयत्यपि नलिने नाशमुपयाति । निरुद्धत्वाच्च तत्रैव परासुतां लभत इति।
___ अर्थ-स्नान, अङ्गराग, धूपवत्ती, सुगन्धित लेप, अधिवास और पटवासकी सुगन्धसे पागल हुआ मनुष्य भौंरेके समान मृत्युको प्राप्त होता है ।
___ भावार्थ-इसमें कुछ सुगन्धित द्रव्योंको गिनाया गया है । चन्दन, केशर वगैरहका लेप कर*नेको अङ्गराग कहते हैं । धूपकी बनाई गई वत्तीको धूपवत्ती कहते हैं। उसे जब जलाते हैं तब वह धूपकी ही तरह सुगन्ध देती है। किसी चीजको मालती वगैरहके फूलोंकी सुगन्धसे सुवासित करनेको अधिवास कहते हैं । कपड़ोंको सुवासित करनेके लिए तैयार किये गये सुगन्धित चूर्णको पटवास कहते हैं। इनकी सुगन्धसे जिनका मन चंचल हो उठता है, वह भौरेकी तरह नाशको प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार भौंरा कमलकी सुगन्धसे आकृष्ट होकर उसके भीतर बैठकर उसकी गन्ध लिया करता है । जब सूर्य डूब जाता है, तो कमल बन्द हो जाता है । कमलके बन्द होते ही वह उसके अन्दर बंद हो जाता है । और उसके बन्द होनेसे वह वहीं मर जाता है।
मिष्टान्नपानमांसोदनादिमधुररसविषयगृद्धात्मा ।
गलयन्त्रपाशबद्धो मीन इव विनाशमुपयाति ॥ ४४ ॥ १ सन्निवेशिता दृ-मु०। २ वर्तिः सैव धूपो ब०। . . ५प्र०