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________________ २६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [तृतीयोऽधिकारः, रागादयः बचनयोग, और काययोग-ये तीन योग हैं । कर्मबन्धमें ममकार और अहंकार अथवा राग और द्वेष इन चार सहायकोंकी अपेक्षा करते हैं। उनकी सहायता पाकर ही वे दोनों आठ प्रकारके कर्मबन्धमें हेतु होते हैं। अष्टविधं बन्धमादर्शयन्नाहबन्धनके आठ भेद कहते हैं: सज्ज्ञानदर्शनावरणवेद्यमोहायुषां तथा नाम्नः। गोत्रान्तराययोश्चेति कर्मबन्धोष्टधा मौलः ॥ ३४ ॥ टीका–स खलु तद्धेतुकः कर्मबन्धो ज्ञानावरणीयादिभेदेन अष्टधा भवति । 'ज्ञानावरण दर्शनावरणं वेद्यं मोहनीयमायुर्नाम गोत्रमन्तरायम् ' इति अष्टौ मूलभेदाः। क्षयोपशमनं सायिकं च ज्ञानमात्रियते येन कर्मणा तज्ज्ञानावरणम् । चक्षुर्दर्शनाधावियते येन कर्मणा तद् दर्शनावरणम् । निद्रादिपञ्चकञ्च, तदपि हि दर्शनमावृणोत्येव । वेद्यं सुखानुभवलक्षणं दुःदुखानुभवलक्षलञ्च । ' मुह्यति अनेन जीवः' इति मोहोऽनन्तानुबन्ध्यादिः। यस्य कर्मणः प्रसादात् 'जीवति' इत्युच्यते, प्राणान् धारयति, तदायुः । नाम्यन्ते प्राप्यन्ते येन गतिजात्यादिस्थानानि तमाम । विशिष्टकुलजात्यश्वर्यादिप्रापणसमर्थमुच्चैर्गोत्रम् । तद्विपरीतं नीचैर्गोत्रम् । दानलाभादिविघ्नकारि च अन्तरायमिति। 'मौलः' इति मूले भवो मौलः कर्मबन्धः ॥ ३४॥ अर्थ-मूल कर्मबन्धके आठ भेद हैं:-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोह, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । भावार्थ-उक्त कारणोंसे होनेवाला कर्मबन्ध ज्ञानावरण आदिके भेदसे आठ प्रकारका होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-ये आठ मूल भेद हैं । जो कर्म क्षायोपशमिक और क्षायिकज्ञानको ढाँकता है, वह ज्ञानावरण है। जो कर्म चक्षुदर्शन वगैरहको ढाँकता है, वह दर्शनावरण है । पाँचों निद्राएँ भी दर्शनावरणके ही भेद हैं; क्योंकि वे भी दर्शनको ढाँकती हैं। सुख और दुःखका अनुभव जो कर्म कराता है, वह वेदनीय है । जिस कर्मसे जीव मोहा जाता है, वह मोह है। उसके भेद अनन्तानुबन्धी आदि हैं । जिस कर्मके उदयसे जीव जीता है, अर्थात् प्राणोंको धारण करता है, वह आयु है । जिस कर्मके उदयसे गति जाति वगैरहकी प्राप्ति होती है, वह नाम है । जिस कर्मके उदयसे विशिष्ट जाति तथा ऐश्वर्य आदि प्राप्त होता है, वह उच्च गोत्र है। उससे उल्टा नीच गोत्र है । जो कर्म दान, लाभ वगैरहमें विघ्न डालता है, वह अन्तराय है। ___यथेष मौलोऽष्टविधः अथोत्तरः कतिविधः १ इत्याहअब उत्तर कर्मबन्धके भेद कहते हैं:
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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