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कारिका ३१-३२-३३]
प्रशमरतिप्रकरणम्
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धन कमानेके लिए बनिये लोग लेन-देनमें मायाचार भी करते हैं, अतः माया ममकारके ही अन्तर्गत है। क्रोध भी उसी भावसे ही किया जाता है। यह मामूली भादमी होकर भी मुझपर क्यों चिल्लाता है ! अथवा मुझे क्यों मारता है ?, यह अहंकार ही है। अतः इन क्रोधादि कषायोंके मूल अर्थात बीजके दो ही पद हैं । तथा राग और द्वेष भो क्रोधादिके बीज जानने चाहिए। ये दोनों उन्हीं दो पदोंके नामान्तर हैं। ममकारका नाम राग है, और अहंकारका नाम द्वेष है।
अथैषां क्रोधादीनां चतुर्णा कषायाणां को रागः, को वा द्वेषस्तदित्याहइन क्रोधादि कषायोंमें राग और द्वेषका विभाग करते हैं:
माया लोभकषायश्चेत्येतद्रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् ।
क्रोधो मानश्च पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्टः ॥ ३२॥ टीका-उक्तलक्षणौ मायालोभौ । तावेव द्वन्द्वं मिथुनम् । रागसंशितं रागनामकम् । क्रोधमानौ चोक्तलक्षणौ । एचदपि द्वन्द्वं द्वयं 'द्वेष' इति निर्दिश्यते संक्षेपतः ॥ ३२॥
अर्थ-संक्षेपमें माया और लोभ कषायके युगलका नाम राग है, और क्रोध तथा मान कषायके युगलका नाम द्वेष है।
भावार्थ-माया और लोभको राग कहते हैं, और मान तथा क्रोधको द्वेष कहते हैं।
तौ पुनर्ममकाराहङ्कारौ रागद्वेषौ वा किं केवलावेव ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धे पर्याप्ती अथान्यमपि कश्चित् सखायमपेक्षेते ? इत्याह
शङ्का-वे ममकार और अहंकार अथवा राग और द्वेष अकेले ही ज्ञानावरणादिक कर्मोंका बन्ध करानेमें समर्थ हैं या किसी दूसरेकी सहायता लेते हैं ? ग्रन्थकार इसका उत्तर देते हैं :
मिथ्यादृष्टयविरमणप्रमादयोगास्तयोर्बलं दृष्टम् ।
तदुपगृहीतावष्टविधकर्मबन्धस्य हेतू तौ ॥ ३३ ॥ टीका-मिथ्यादर्शनं मिथ्यावृष्टिः। तत्पूर्वमुक्तं तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणम् । अविरमणमविरतिः- अनिवृत्तिः पापाशयात् । विषयेन्द्रियनिद्राविकथाख्यः चतुर्विधः प्रमादः। मनोवाकायारव्या योगाः। एतांश्चतुरः सहायानपेक्षेते ममकाराहङ्कारौ रागद्वेषौ वा कर्मणि बन्धितव्ये। 'तयोः' इत्येतावेव सम्बध्येते। 'बलम् ' इति उपकारकत्वम् । उपकारका मिथ्यादर्शनादयः तयो रागद्वेषयोः। तैश्चोपग्रहीतावेतौ मिथ्यादर्शनादिभी रागद्वेषौ अष्टप्रकारस्य कर्मबन्धस्य हेतुत्वं प्रतिपद्यते इति ॥३३॥
- अर्थ-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और योग ये राग और द्वेषकी सेना हैं । उसकी सहायतासे वे दोनों आठ प्रकारके कर्मबन्धके कारण होते हैं।
भावार्थ-मिथ्यात्वका लक्षण 'तत्त्वार्थका श्रद्धान न करना' पहले बतला आये हैं। पाप-कार्यों से विरति न होनेको अविरति कहते हैं। विषय, इन्द्रिय, निद्रा और विकथा ये प्रमादके भेद हैं। मनोयोग,
१ किचित् प०। ४प्र.