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कारिका २४ ]
प्रशमरतिप्रकरणम्
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रात-दिन चिन्ता करते रहना, दूसरा आर्त्तध्यान है । इष्ट वस्तुके विछोह हो जानेपर उसकी पुनः प्राप्ति के लिए चिन्ता करना तीसरा आर्त्तध्यान है । चकवर्त्ती आदि की सम्पत्तिको देखकर मुझे भी इस तपका फल परलोकमें इसी रूपमें मिले, ऐसा सोचते रहना निदान नामका चौथा आर्त्तध्यान है । ऋत दुःख अथवा संक्लेशको कहते हैं, उससे जो ध्यान होता है, वह आर्त्तध्यान है । क्रूर अथवा निर्दयको रुद्र कहते हैं, उसका जो ध्यान होता है, वह रौद्रध्यान है । वह भी चार प्रकारका है : - पहला हिंसानुबन्धि है, अर्थात् हिंसा में आनन्द मानना । झूठी गवाही देना वगैरह अमुक अमुक उपायसे दूसरे ठगे जाते हैं, इत्यादि उपाय सोचने में मनका तन्मय होना दूसरा असत्यानन्द रौद्रध्यान है। कैंची, फावड़ा, वगैरह जिन जिन उपायोंसे दूसरों का धन हरा जा सकता है, उन उपायोंके चिन्तनमें मनका एकाग्र होना स्तेयानुबंधि नामका तीसरा आर्तध्यान है । धन-धान्य आदि परिग्रहके संरक्षणमें रात-दिन मनका लगा रहना विषयानन्दि नामका चौथा रौद्रध्यान है। इन दोनों दुर्ध्यानोंमें आत्माके भाष बड़े तीव्र होते हैं, और जिनके वैसे भाव होते हैं, वह राग और द्वेषके अधीन होता है ॥ २० ॥
अर्थ- जो कार्य और अकार्यका निश्चय करनेमें मूढ़ है, संक्लेश और विशुद्धिके स्वरूपको नहीं समझता, आहार-भय-परिग्रह और मैथुन संज्ञारूपी कलहमें जो फँसा हुआ है।
भावार्थ - जीवकी रक्षा आदि कार्य हैं और जीवकी हिंसा वगैरह अकार्य हैं । कलुषित परिणामों के होनेको कालुष्य कहते हैं, और निर्मल भावोंके होनेको विशुद्धि कहते हैं । इनको जो नहीं समझता तथा आहार वगैरह की चाह में फँसा हुआ है, वह रागादिकके आधीन है ॥ २१ ॥
अर्थ- जो आठ प्रकारके क्लिष्ट कर्मोंके निकाचितबन्धसे भारी हो रहा है, तथा सैकड़ों गतियोंमें बार-बार जन्म लेने और मरनेके कारण अनेक प्रकार के परिभ्रमणके चक्कर में पड़ा हुआ है ॥ २२ ॥
अर्थ — सर्वदा हजारों दुःखों के गुरु भारसे आक्रान्त होनेके कारण जो दुर्बल हो रहा है, दयाका पात्र है, विषय- सुखमें आसक्त होकर उनकी और चाइना करता है, वह जीव कषायवाला कहा जाता है ।
भावार्थ–दुःखकी अधिकता बतलानेके लिए 'हजारों दुःख ' कह दिया है । अर्थात् नरकादिक गतियोंमें बराबर दुःख सहते-सहते जिसकी आत्मा दुःखोंके भारसे दब गई है, इसी लिए जो दया करने के योग्य है, तथा जो विषय सुखमें इतना आसक्त है कि विषय-सुखके मिलने पर भी उसकी इच्छा शान्त होनेके बजाय और बढ़ती है । जो जीव इस प्रकारके होते हैं, वे राग और द्वेषके अधीन होते हैं । राग और द्वेषका ही नाम कषाय है । अतः वे कषायवाले अर्थात् क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी कहे जाते हैं ॥ २३ ॥
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' स पुनः कषायवक्तव्यतां गत्वा किमवाप्नोति ? ' इत्याह
अब कषायवान् आत्माकी क्या दशा होती है, यह बतलाते हैं:
स क्रोधमान माया लोभैरतिदुर्जयैः परामृष्टः । प्राप्नोति यानमर्थान् कस्तानुद्देष्टुमपि शक्तः ॥ २४ ॥