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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् द्वितीयोऽधिकारः, कषायाः कार्य जीवरक्षादिकम् । अकार्य जीवबधादिकम् । तयोविनिश्चयो निर्णयः स तथा। संक्लेशः कालुण्यम् । विशुद्धिः नैर्मल्यम् । तयोः क्लिष्टचित्ततानिमलचित्ततारूपयोर्लक्षणानि परिज्ञानानि । तथा तानि चेति समासः । तैः करणभूतैर्मूढः-मुग्धः । तथा आहारमयपरिग्रह मैथुनसंज्ञाः प्रसिद्धरूपाः। ता एव कलयः कलहाः कलिहेतुत्वात् । तैर्ग्रस्तः-आघ्रात इति ॥२१॥
गतिशतेषु वह्वीषु गतिषु पुनः पुनरावृत्या भ्रमणात् , क्लिष्टमष्टाभिः कर्मभिर्बन्धनं तेन . बद्धः, बद्धनिकाचितत्वात् गुरुः, जन्मजरामरणानि तैरजस्रं पुनः पुनः, बहुविधपरिवर्तनमनेका कारम्, अतो भ्रान्तः परिवर्तनेन ॥ २२ ॥
दुःखसहस्रमिति । बाहुल्यप्रतिपादनार्थ सहस्रग्रहणम् । दुःखसहस्राण्येव निरन्तराणिअव्यवछिन्नानि । नारकतिर्यङ्मनुष्यामरभवेषु गुरुर्भारः, तेनाक्रान्तत्वात्-अवष्टब्धत्वात् , कार्षित कृशतां नीतो 'दुबर्लतां गतः' इति यावत् । करुणास्पदत्वात् करुणः। तृष्यतीति तृषः पिपासितः। विषयाः शब्दादयः, तजनितं सुखं विषयसुखमातदनुगतः तत्रासक्तः । विषयसुखानुगतश्चासौ तृषश्चेति विषयसुखानुगततृषः । उपजातविषयसुखोऽपि पुनस्तृष्यति 'विशिष्टतरमभिलषति' इत्यर्थः । एवंविधो जीवः कषायाणां क्रोधादीनां वक्तव्यतामेति-क्रोधी, मानी, मायावी, लोभवांश्चेति । उलक्षणः कषायशब्दः । कषायवेक्तव्यः क्रोधादिभिरित्यर्थः ॥ २३ ॥ ___अर्थ-जो राग और द्वेषसे युक्त है, जिसकी बुद्धि मिथ्यात्वसे ग्रस्त होनेके कारण मलिन है
और मलिन बुद्धिके कारण पाँच इन्द्रियों अथवा हिंसादि पाँच पापोंके द्वारा होनेवाले कर्मोंके आगमनसे जिसकी आत्मामें खूब कर्ममल इकट्ठा होगया है, जिसके मार्तध्यान और रौद्रध्यान रूप तीव्र परिणाम होते हैं।
भावार्थ-राग और द्वेषके नामान्तर पहले बतला आये हैं । जो उनसे युक्त है, वही राग और द्वेषके अधीन होता है । तत्त्वार्थक श्रद्धान न करनेको मिथ्यात्व कहते हैं । वह तीन प्रकारका हैगृहीत, अगृहीत और सन्देह । तीनसौ वेसठ पाखण्डिमत गृहीत मिथ्यात्व हैं; क्योंकि दूसरोंके उपदेश वगैरहसे लोग उन्हें ग्रहण करते हैं। किसी पाखण्डी देवताको उपदेशपूर्वक ग्रहण न करना, अर्थात् जन्मसे ही उसमें अभिरुचि होना अगृहीत मिथ्यात्व है । श्रुतज्ञानके एक भी अक्षर अथवा पदमें रुचि न होनेसे सन्दिग्ध मिथ्यात्व होता है । जिसके मिथ्यात्व होता है, उसकी बुद्धि मलिन हो जाती है, और बुद्धिके मलिन हो जानेसे वह पाँचों इन्द्रियों के विषयोंमें आसक्त हो जाता है । अथवा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह इन पाँचों पापोंको करता है । इससे उसके कर्मोंका आस्रव होता है, और कर्मोंके आस्रव होनेसे उसकी आत्मामें कर्म-मलकी राशि इकट्ठी हो जाती है। ऐसा जीव भी राग और दूषके अधीन होता है।
तथा आर्तध्यान चार प्रकारका है:-अप्रिय वस्तुके सम्बन्ध हो जानेपर उसके दूर करनेके लिए जो रात-दिन चिन्ताका कारण है, वह पहला आर्तध्यान है । कोई रोग हो जानेपर उसके दूर करनेके लिए
१ स एव सं-प०, स एव च सं-ब० । २ पदमिदं प० प्रतो नास्ति ।