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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [एकविंशाधिकारः, मोक्षगमनविधानम् टीका-ईषन्मनाग् हस्वानामक्षराणां 'कखगघङ' इत्येषामुच्चारणाकाल उद्गिरणमुच्चारणं तत्तुल्यकालीयां तावत्प्रमाणां शैलेशीमेति । संयमेनानुत्तरेण वीर्येण च प्राप्तबलः शैलेशीमेति विगतलेश्यः । शैलेश इव मेरुरिव निष्प्रकम्पो यस्यामवस्थायां भवति, साऽवस्था शैलेशीति स्त्रीलिङ्गशब्दः पृषोदरादिपाठात् संस्क्रियते । शैलानामीशतया शैलानामीश्वरी सा शैलेश्यवस्थेति । विगता लेश्या भावाख्या यस्य स विगतलेश्यः। द्रव्यलेश्याभावाद्भावलेश्यानामसंभवः ।। २८३ ॥ ___ अर्थ-संयम और वीर्यके द्वारा बलको प्राप्त करके, लेश्या रहित हुए वह केवलीभगवान् शैलेशी अवस्थाको प्राप्त करते हैं । कुछ ह्रस्व पाँच अक्षरोंके उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतना ही काल इस शैलेशी अवस्थाका है। भावार्थ-चौदहवें गुणस्थानमें ही शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है । शैलों-पहाड़ोंका ईशस्वामी होनेके कारण सुमेरुको शैलेश कहते हैं। सुमेरुकी तरह निश्चलता जिस अवस्थामें प्राप्त होती है; उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं । समस्त योगोंके निरोध, उत्कृष्ट संवरकी प्राप्ति और लेश्याका अभाव हो जानेके कारण यह अवस्था चौदहवें गुणस्थानमें ही प्राप्त होती है । और ' क ख ग घ ङ ' अथवा 'अ इ उ ऋ ल' इन पाँच हस्व अक्षरोंके उच्चारण करनेमें जितना काल लगता है, उतना ही उसका काळ होता है। पूर्वरचितं च तस्यां समयश्रेण्यामथ प्रकृतिशेषम् । समये समये क्षपयत्यसंख्यगुणमुत्तरोत्तरतः ॥ २८४ ॥ टीका-प्रथममेव समुद्घातकाले रचितं व्यवस्थापितं समयश्रेण्यां समयपत्तौं । प्रकृतिशेष प्रवेद्यनामगोत्रायुषां यदवशिष्टमास्ते तत् प्रकृतिशेषम् । प्रतिसमयं क्षपयन्तसंख्येय. गुणमुत्तरेणोत्तरेषु समयेषु ॥ २८४ ॥ . अर्थ-पूर्वरचित अवशिष्ट कर्मप्रकृतियोंको शैलेशी अवस्थाके समयोंकी पंक्तिमें प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी खपाता है। भावार्थ-समुद्घातके समय वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुकर्मका जो भाग शेष रह गया था, उस भागको शैलेशी कालके समयोंमें खपाता है । और प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिकोंको खपाता है । अर्थात् प्रथम समयमें जितने दलिक खपाता है, दूसरे समयमें उनसे असंख्यातगुणे दलिकोंको खपाता है । इसी प्रकार आगेके समयोंमें भी असंख्यातगुणे दलिकोंको खपाता है। १- शैलेशीमेति ' इत्यारभ्य (प्रासबलः) इति पर्यन्तः पाठोः वारद्वयं लिखितः-फ० प्रती । २-दूसरी टीकामें सेवरकी सामर्थ्यसे बलको प्राप्त करके-ऐसा अर्थ किया है। ३-पूर्वारचितं-फ०। ४-नास्ति पदमिदं-फ० पुस्तके। ५-प्रकृतोशेषं-फ०। ६-मस्ति फ.।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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