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कारिका २८०-२८१-२८२-२८३ ] प्रशमरतिप्रकरणम् आशय यह है कि जीवका प्रमाण अपने शरीरके बराबर होता है । जैसा और जितना शरीरका आकार होता है वैसा और उतना ही आकार जीवके प्रदेशोंका होता है। अतः केवलीके आत्म-प्रदेश भी शरीरके आकार और उतने प्रमाण होते हैं, किन्तु शरीरके नाक, कान, मुँह, उदर वगैरहमें बहुतसा भाग खाली रहता है, उन खाली भागोंमें जीवके प्रदेश नहीं होते । परन्तु शैलेशी हो जानेपर ध्यान-बलसे वे खाली भाग आत्म-प्रदेशोंसे पूरित हो जाते हैं। और उन भागोंके पूरित हो जानेसे आत्माके प्रदेश घनीभूत हो जाते हैं । और इस प्रकार घनीभूत हो जानेसे शरीरकी अवगाहनासे आत्म-प्रदेशोंकी अवगाहना एकतिहाई भाग कम हो जाती है।
अथ स भगवान् कीदृगवस्थो निरुद्धेषु योगेषु भवतीत्याहयोगनिरोध होनेपर केवलीभगवान्की जो अवस्था होती है, उसे बतलाते हैं :
सोऽथ मनोवागुच्छासकाययोगक्रियार्थविनिवृत्तः ।
अपरिमितनिर्जरात्मा संसारमहार्णवोत्तीर्णः ॥ २८२ ॥
टीका–स भगवान् केवली वाक्कायमानासोच्छासयोगक्रियार्थविनिवृत्तो निरुद्धसकल. क्रियः । अपरिमितनिर्जर आत्मा यस्य बहुकर्मक्षपणयुक्तः संसारमहार्णवादुत्तीर्ण एव ॥ २८२ ॥
अर्थ-योगनिरोधके अनन्तर मनोयोग, वचनयोग, काययोग, और श्वासोच्छासकी क्रियासे निवृत्त होकर वह केवलीभगवान् कर्मोंकी अपरिमित निर्जरा करते हैं, और संसाररूपी समुद्रसे पार हो जाते हैं।
भावार्थ-योगका निरोध होजानेपर नवीन बन्धका तो सर्वथा अभाव ही हो जाता हैं और वची हुई शेष ८५ प्रकृतियोंको भी एक अन्तर्मुहूर्तमें क्षपण कर डालता है। अतः उसे संसार-समुद्रसे पार हुआ ही समझना चाहिए।
स व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यानकालेशै लेश्यवस्था यातीत्याह
अब व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यानके समय वह शैलेशी अवस्थाको प्राप्त करता है, यह बतलाते है:
ईषद्मस्वाक्षरपञ्चकोद्रिणमात्रतुल्यकालीयोम् । संयमवीर्याप्तबलः शैलेशीमेति गतलेश्यः ॥२८३ ॥
१-वृत्तः निरुद्धसकलक्रियः-ब०। २-कालीयायाम-ब०। ३-मबमावी-ब०॥