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________________ १८४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टादशोऽधिकारः, क्षपकश्रेणी ___अर्थ-जिस प्रकार ताड़ वृक्षके सिरपर जो सूची–शाखाभार ऊगता है, उसके नाशसे ताड़ वृक्षका नाश अवश्य हो जाता है, उसी प्रकार मोइ नीयकर्मके नाशसे शेष कर्मोंका नाश अवश्थ हो जाता है। छद्मस्थवीतरागः कालं सोऽन्तर्मुहूर्तमथ भूत्वा । युगपद्विविधावरणान्तरायकर्मक्षयमवाप्य ॥ २६८ ॥ टीका-छद्म चावरणं तत्र स्थितः छद्मस्थः, वीतरागश्च क्षपितकषायत्वात् । अन्तमुहर्त घटिकाद्वयाम्यन्तरकालं वीतरागो भूत्वा । युगपत् समकमेव । विविधं ज्ञानावरणं मतिज्ञानादिभेदं, दर्शनावरणं चतुर्विधम् । विविधमित्यनेकरूपम् । तथान्तरायं दानान्तरायादिप्रकारम् । इत्थं कर्मक्षयमवाप्य ॥ २६८ ॥ किं प्राप्तवानित्याह शाश्वतमनन्तमनतिशयमनुपममनुत्तरं निरवशेषम् । सम्पूर्णमप्रतिहतं सम्प्राप्तः केवलज्ञानम् ॥ २६९ ॥ टीका--शाश्वतं लब्धात्मलाभं सर्वकालभावित्वमेवे भावयति-अनन्तमपर्यवसानम् । अविद्यमानातिशयं महातिशयम्, न ततः परमतिशयोऽस्ति, न तत् केनचिदतिशय्यत इत्यर्थः । अविद्यमानोपममनुपम्, तत्सदृशस्याँभावात् । अविद्यमानमुत्तरं ज्ञानं यस्य तदनुत्तरम् । निरव शेषमात्मनः स्वरूपं सम्पूर्णम्, सकलज्ञेयग्राहित्वात् । अविद्यमानमप्रतिघातमप्रतिहतं सर्वतः पृथ्वी. समुद्रादावपि न प्रतिहन्यते सम्प्राप्तः प्राप्तवानेवंविधं केवलज्ञानम् ॥ २६९ ॥ अर्थ-उसके बाद अन्तर्मुहूर्त कालतक छमस्थ वीतराग रहकर वह मुनि एकसाथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तरायकर्मका क्षय करके नित्य, अनन्त, निरतिशय, अनुपम, अनुत्तर, निरवशेष, सम्पूर्ण और अप्रतिहत केवलज्ञानको प्राप्त करता है। भावार्थ-बारहवें गुणस्थानका नाम छमस्थवीतराग है । छद्म आवरणको कहते हैं । बारहवें गुणस्थानके जीवोंके ज्ञानादिके गुणोंपर आवरण रहता है । अतः उन्हें छमस्थ कहते हैं। और कषायोंके क्षय हो जानेपर बारहवें गुणस्थानकी प्राप्ति होती है । अतः उसे वीतराग कहते हैं । इसलिए बारहवें गुणस्थानवी मुनि छन्मस्थवीतराग कहे जाते हैं, बारहवें गुणस्थानमें आनेके बाद मुनि एक अन्तर्मुहर्त कालतक ठहरकर ज्ञानावरणको पाँच, दर्शनावरणकी चार, और अन्तरायकी पाँच प्रकृतियोंका एकसाथ क्षय करता हैं । इनका क्षय करते ही उसे केवलज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है । वह केवलज्ञान सदा रहता है, उसका कभी अन्त नहीं होता, उससे बढ़कर कोई अतिशय नहीं है । उसके समान दूसरी कोई १-नास्तीदं पदं-फ० पुस्तके। २-भावि तमेव-ब०। ३-तत्सदृशस्थान्यस्याभावातू-ब०।।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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