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________________ कारिका २६४-२६५-२६६-२६७ ] प्रशमरतिप्रकरणम् एतदेव स्पष्टयन्नाहइसी बातको स्पष्ट करते हैं: परकृतकर्मणि यस्मान कामति संक्रमो विभागो वा। तस्मात् सत्त्वानां कर्म यस्य यत्तेन तद्वद्यम् ॥ २६६ ॥ टीका-परेणकृतं कर्म तस्मिन् परकृतकर्मणि विषये । यस्मानास्ति संक्रमैः । अन्येन यत्कर्म ( कृतमस्तीति ) तदन्यत्र नै कामति न संक्रान्तिर्भवति । सर्वस्य कर्मणः संक्रमो मा भूदेकस्य भविष्यतीति नेत्याह-विभागो वा । नाप्येकदेशो विभागः संक्रामतीत्यर्थः, कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसंगात् । तस्मात् सत्त्वानां प्राणिनां यस्य यत्कर्म प्राणिनस्तेनैव तद्वेद्यमनुभवनीय. मिति । अथवा न कामति न क्रमते, न भवति संक्रान्तिरिति ॥२६६॥ अर्थ-यतः दूसरेके द्वारा किये हुए कर्ममें न संक्रम होता है और न विभाग होता है । अतः प्राणियों से जो प्राणी जिस कर्मको करता है उसे वही भोगता है। भावार्थ-दूसरेके द्वारा किया दुआ कर्म न तो सबका सब ही अन्यके कर्मों में जाकर मिल सकता है और न उसका कोई भाग ही अन्यके कर्मोंमें जाकर मिल सकता है। यदि ऐसा हो तो कृतनाश और अकृताभ्यागमका प्रसंग उपस्थित होगा । अर्थात् यदि अन्यका किया हुआ कर्म अन्यको भोगना पड़े तो जिसने कर्म किया है, उसके कर्मका तो नाश हो जावेगा और जिसने कर्म नहीं किया है, उसे अकृतकर्मकी प्राप्ति हो जावेगी। और ऐसा होनेसे तो वही लौकिक कहावत चरितार्थ होगी कि " करे कोई और भरे कोई ।" अतः जो करता है वही भोगता भी है। मोहनीयकर्मक्षयाच्छेषकर्मक्षयोऽवश्यं भावीति दर्शयतिअब यह बतलाते हैं कि मोहनीयकर्मके क्षय होनेपर शेष कर्मोका क्षय अवश्य हो जाता है: मस्तकसूचिविनाशात्तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः । तद्वक्तर्मविनाशो हि मोहनीयक्षये नित्यम् ॥ २६७ ॥ टीका--तालतरोः शिरसि सूचिर्या प्ररोहति । तद्विनाशे च तालतरोरवश्यंभावी ध्रुवो नाशः । तद्व-तथा शेषकर्मणां विनाशः क्षयोऽष्टाविशतिविधमोहनीयक्षये ध्रुवो नित्य इत्यर्थः ॥ २६७ ॥ १-'एतदेव' इत्यारम्य 'संक्रमो विभागोवा' इतिपर्यन्तः पाठः-ब० पुस्तके नास्ति। .२-संक्रान्तिः -ब०। ३-च-फ०,-40,i.
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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