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________________ कारिका ७-८] प्रशमरतिप्रकरणम् भावार्थ-मुझे जो कुछ बुद्धि प्राप्त हुई है वह, जिनसे श्रुतवचनरूप धान्यके कण निकले हैं, उनमें अथवा श्रुतवचनरूप धान्यके कणोंमें मेरी जो भक्ति-श्रद्धा है, उसीका प्रसाद है। तथा ज्ञानावरणसे कलुषित होनेके कारण मेरी बुद्धि निर्मल भी नहीं है और थोड़ी भी है । जब चौदह पूर्वके पाठियोंका ज्ञान भी षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिको लिए हुए होता है, तब हमारे जैसे प्राणियोंके ज्ञानकी कथा ही क्या है ? शङ्का-क्या यह कोई नियोग है कि ग्रन्थ अवश्य बनाना ही चाहिए। समाधान-मुझे वैराग्य बहुत प्रिय है । अतः बुद्धि और शक्ति अल्प होनेपर भी उसी प्रेमवश मैंने वैराग्यको उत्पन्न करनेवाली यह छोटीसी रचना की है। ननु च उच्छिष्टाः श्रुतवाक्पुलाकिकाः परिगृह्य या रचिता, कथं सा सतां सम्मता भविष्यतीत्याह दूसरोंके द्वारा छोड़े गये जिनवाणीके कणोंको लेकर की गई रचना सज्जनोंको कैसे मान्य होगी ? इस आशंकाका समाधान करते हैं: यद्यप्यवगीतार्था न वा कठोरप्रकृष्टभावार्था । सद्भिस्तथापि मय्यनुकम्पैकरसैरनुग्राह्या ॥८॥ ____टीका-अवगीतोऽनादृतः परिभूतोऽर्थो यस्याःसा अवगीतार्था यद्यपि। कथं पुनरवगीता. थत्वमाशङ्कते? यतो न वा कठोरप्रकृष्टभावार्था । वा शब्दोऽवधारणार्थः । नैव कठोर आक्षेपपरिहारपरिशुद्धः प्रकृष्टो वाचकैः शब्दैः प्रतिपाद्यः 'नातः परमन्योऽर्थोऽस्ति' इति सकलकारककलापसाध्यः प्रकर्षभावापन्नोऽर्थो नैव यस्याम् । सद्भिः तथापि सुजनैऽर्गुणदोषविद्भिः मय्यनुकम्पैकरसैरनुग्राह्या । 'मयि ' इति उत्सेषिकामात्रसंघट्टनशीले कृपणके द्रमकभूतेऽ नुकम्पाहे । अनुकम्पैव एको रसः स्वभावो येषां सजनानां तैः अनुकम्पैकरसैः । इयमनुग्रहीतव्या, ' अनुग्रहाहो' इत्यर्थः । सन्तो हि करुणापात्रमवलोक्यावश्यंतयाऽनुग्रहं कुर्वन्तीति ॥८॥ - अर्थ यद्यपि इसमें जो कुछ कहा गया है, वह आदरके योग्य नहीं है और न उसका भाव ही गंभीर और ऊँचे दर्जेका है, तथापि दयालु सज्जनोंको मुझपर अनुग्रह करना चाहिए। भावार्थ-इस ग्रन्थमें न तो तर्क-वितर्क उठाकर शङ्कासमाधानपूर्वक आक्षेपोंका परिहार ही किया गया है, और न इसमें जो अर्थ कहा गया है वह इतने उत्कृष्ट भावको लिये हुए है, कि यह कहा जा सके कि इसमें कहे हुए अर्थसे बाकी कोई अर्थ कहनेके लिए नहीं है। इसलिए कहा हुआ अर्थ आदरके योग्य नहीं है। फिर भी मैं चावलके कणोंको बीननेवाले रङ्क मनुष्यके समान दयाका पात्र हूँ, और सज्जनोंका स्वभाव दया करनेका ही होता है, अतः वे मुझपर कृपा करके मेरी इस रचनापर भी अवश्य ही कृपा करेंगे। .: अयमेव स्वभावः सजनानाम् ' इति दर्शयन्नाहसज्जनोंका यही स्वभाव है, यह बतलाते हैं:१ न च क-मु०। २प्र०
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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