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________________ १६७ कारिका २३८-२३९-२४०-२४१] प्रशमरतिप्रकरणम् अपि च दुःखमेवेदं वैषयिकं सुखं पामनपुरुषकण्डूतिसुखवत् । दुःखमेवायं सुखाभिमानोऽल्पचेतसाम् । एवं विज्ञाय ज्ञात्वा च । रागद्वेषात्मकानि रागद्वेषपरिणतिजातानि रागद्वेषानुविद्धानि दुःखानि संसारे करोतीदम् ॥ २३९ ॥ निजशरिकेऽपि न रज्यति रागं न करोति स्नेहमित्यर्थः । शत्रावपि न प्रदोष प्रदेष करोति । रोगो ज्वरादिः। जरा वयोहानिः । प्राणनाशो मरणम् । भयमिहलोकादि सप्तप्रकारम्। अपि शब्दश्चार्थे । एभिश्च न व्यथितः संपतद्भिरपि न बाधितः । एभ्यो न भीतो यः स नित्यमेव सुखी नित्यसुखीति ॥ २४० ॥ अर्थ-जो शब्द आदि विषयों के परिणामको अनित्य और दुःखरूप जानकर तथा संसारके दुःखोंको राग और द्वेषसे होनेवाले जानकर अपने शरीरमें भी राग नहीं करता और शत्रुसे भी द्वेष नहीं करता, रोग, बुढ़ापा, मृत्यु और भयसे अपीड़ित वह मनुष्य सर्वदा सुखी है । भावार्थ-शब्द, रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श-ये पाँचों इन्द्रियों के विषय है । इनमें जो इष्ट अथवा अनिष्ट बुद्धि होती है, यही उनका परिणाम है, वह परिणाम अनित्य है; क्योंकि जो विषय आज सखकर लगते हैं, कल वही दःखदायी लगने लगते हैं। इसीलिए उन विषयोंके सम्बन्धसे जो सुख होता है, वह भी अनित्य है, विषयोंके होनेपर होता है, उनके अभावमें नहीं होता । तथा यइ वैषयिक. सुव वास्तवमें दुःख ही है । जिस प्रकार खाजका रोगी खाजके खुजलानेमें सुख मानता है, उसी प्रकार अज्ञानी प्राणी विषय-सेवनमें सुखका अभिमान करते हैं । तथा विषयों का अनुभवन करनेसे राग और द्वेष अवश्य उत्पन्न होते हैं । जो विषय प्रिय लगते हैं, उनसे राग होता है और जो अप्रिय लगते हैं, उनसे द्वेष होता है । ये राग और द्वेष ही संसारके दुःखोंके मूलकारण हैं। ऐसा जानकर जो अपने शरीरसे भी राग नहीं करता है और शत्रुसे भी द्वेष नहीं करता है तथा जो रोग, बुढ़ापा, मृत्यु और भयसे डरता नहीं—यदि ये उपस्थित भी हो जाये तो खेदखिन्न नहीं होता, वह मनुष्य सर्वदा सुखी रहता है। धर्मध्यानाभिरतस्त्रिदण्डविरतस्त्रिगुप्तिगुप्तात्मा । सुखमास्ते निर्द्वन्द्वो जितेन्द्रियपरीषहकषायः ॥२४१॥ टीका-धर्मादनपेतं धर्म्य ध्यानमाज्ञाविचयादि, तत्राभिरतस्तत्परस्तत्र सक्तः । मनोवाकायाख्याइण्डत्रयाद्विरतः । अनागमको मनोवाक्कायव्यापारो दण्डः । तिस्रो गुप्तयस्ताभिगुप्तात्मा । मौनी निरवद्यभाषी । वाका ( कृतका ) योत्सर्गः प्रवचनोक्तविधिना गामी वा धर्मध्यायी निसद्धार्तरौद्राध्यवसायः सुखमास्ते निराबाधमशेषक्रियानुष्ठानं कुर्वन् । निर्द्वन्द्वो निर्गतसकलोपद्रवः एकाकी निष्कलहो वा बितानान्दियाणि वशे स्थापितानि । परीषहाः सम्यक सह्यन्ते । कषायाणामुदयो निसद्ध उदितो वा विफलीकृतः । स एवंविधः सुखमास्ते ॥ २४१ ॥ १-नास्ति सम्पूर्ण वाक्यमिदं-फ० ब० पुस्तकयोः ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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