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________________ १६८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पंचदशोऽधिकारः, चारित्रम् अर्थ-धर्मध्यानमें लवलीन, तीन दण्डोंसे विरक्त, तीन गुप्तियोंसे सुरक्षित, इन्द्रिय परीषह और कषायका जेता कलह रहित साधु सुखपूर्वक रहता है। ___ भावार्थ-धर्मयुक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हैं जो उसमें लगा रहता है, मन, वचन और कायके आगम-विरुद्ध व्यापारको दण्ड कहते हैं, जो इन दण्डोंका त्यागी है, तीन गुप्तियोंका पालन करता है अर्थात् सर्वदा मौन धारण करता है, विशेष आवश्यकता पड़ने पर यदि बोलता है, तो हित-मित वचन ही बोलता है, काय-व्यापार नहीं करता, आगममें कही गई विधिके अनुसार केवल धर्मका ही चिन्तन करता है, आर्त और रौद्र ध्यानोंमें कभी भी मनको नहीं लगाता, लड़ाई झगड़ोंसे दूर रहता है, इन्द्रियोंको अपने वशमें रखता है, परीषहोंको अच्छी तरहसे सहता है, कषायोंके उदयको या तो रोक देता है या उसे व्यर्थकर देता है, ऐसा साधु सच्चे सुखको भोगता है। विषयसुखनिरभिलाषः प्रशमगुणगणाभ्यलतः साधुः । द्योतयति यथा सर्वाण्यादित्यः सर्वतेजांसि ॥ २४२ ॥ .. टीका-शब्दादिजनिते विषयसुखे निर्गतामिलापो निर्गतेच्छः । प्रशमगुणा ये स्वाध्यायसन्तोषादयस्तेषां गणः समूहस्तेनालङ्कतो विभूषितः । साधुर्भास्कर इव । द्योतयति अभिभवति तारकादिप्रभां स्वप्रभया तिरोभाव्य स्वतेज एव प्रकाशयति सर्वाणीत्यशेषाणि तेजांस्यभिभवतीत्यर्थः । तद्वत् साधुरुक्तगुणयुक्तः सर्वतेजांसि देवमनुष्यादीनामाभिभूय प्रकाशते स्वतेजसेति ॥ २४२॥ अर्थ-विषय-सुखकी अभिलाषासे रहित और प्रशम गुणों के समूहसे सुशोभित साधु सूर्यके समान सब तेजोंको अभिभूत करके प्रकाशमान होता है । भावार्थ-शब्द आदिसे उत्पन्न होनेवाले विषय-सुखकी जिसे चाह नहीं है और स्वसन्तोष तथा प्रशमगुणोंके समूहसे जो विभूषित है, वह साधु सूर्यके समान चमकता है । जिस प्रकार सूर्य अपनी प्रभासे तारों आदिकी प्रभाको अभिभूत करके अपने तेजको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार उत्तरगुणोंसे युक्त साधु सभी देव और मनुष्योंको अभिभूत करके अपने गुणोंसे स्वयं ही प्रकाशित होता है। सम्यग्दृष्टिानी विरतितपोबलयुतोऽप्यनुपशान्तः। . तं न लभते गुणं यत् प्रशमसुखमुपाश्रितो लभते ॥ २४३ ॥ टीका-सम्यग्दर्शनसम्पन्नः सम्यग्ज्ञानसम्पन्नश्च । विरतितपोबलयुतोऽपि विरत्य मलोत्तरगुणेन युक्तोऽपि, तपोबलेन च सम्पन्नः। अनुपशान्तः क्रोधादिकषायोदयत्वालब्धप्रशमः । तं गुणं न लभते कषायोदये वर्तमानः । यं गुणं प्रशमगुणमाश्रितः प्राप्नोति । प्रशमस्थस्य हि प्राग्वर्णिता एव गुणाः । तस्मादुपशान्तकषायेण भवितव्यमिति ॥ २४३ ॥ १-यह कारिका-ह वृ ये नहीं है।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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