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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पंचदशोऽधिकारः, चारित्रम् वहॉपर भी वैषयिक ही सुख है; किन्तु मोक्षका सुख तो अत्यन्त परोक्ष है । उस सुखका तो हम संसारी जनोंको आभास भी नहीं हो सकता । परन्तु प्रशम सुखका अनुभव तो हम अपनी आत्मामें ही कर सकते हैं । तथा वह सुख न तो पराधीन है और न विनाशीक है । वैषयिक-सुख नियमतः पराधीन है; क्योंकि वह विषयों की प्राप्ति होनेपर होता है और विषयों के अभावमें नहीं होता।
निर्जितमदमदनानां वाक्कायमनोविकाररहितानाम् ।
विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥ २३८ ॥
टीका-न्यक्कृतगर्वकामानां स्वस्थीभूतचेतसां शान्तानां वागादिविकाररहितानाम् । वाग्विकारो हिंस्रपरुषानृतादिः । कायविकारो धावनवल्गनादिः । मनोविकारोऽभिद्रोहाभि मानेादिः । एभिर्विरहितानाम् । विनिवृत्ता परविषया आशा येषां ते विनिवृत्तपराशाः । परस्मादिदं लभ्यं धनधान्यरजतादि केवलं तु परकृतभिक्षामात्रोपजीविनः। सोऽपि यदि लभ्यते प्रवचनोक्तेन विधिना ततः साधु ज्ञानचारित्रोपकारित्वात् । न लभ्यते चेत्ततः शुद्धाशयस्य निर्जरैवेति । एवंविधानां यतीनोमिहव मोक्षः। मोक्षसुखमुपमानमुपमेयं प्रशमसुखमिति ॥२३८॥
अर्थ-वचन, काय और मनके विकारसे रहित गर्व और कामके जीतनेवाले परकी आशा न करनेवाले, शास्त्रविहित विधिके पालक साधुओंको यहीं मोक्ष है।
___ भावार्थ-जिन्होंने गर्व और कामको जीत लिया है, जिनका चित्त स्वस्थ है, जो शान्त हैं वचनके विकार-कठोरता, असत्यता, हिंसकता वगैरहसे, शरीरके विकार-दौड़ना फाँदना वगैरहसे, और मनके विकार-अभिद्रोह अभिमान ईर्षा वगैरहसे जो रहित हैं, दूसरोंसे प्राप्त होनेवाले धन-धान्य सोना, चाँदी वगैरहकी रंचमात्र भी इच्छा न करके जो केवल भिक्षासे प्राप्त होनेवाले अन्नपानसे अपना जीवन निर्वाह करते हैं-वह भी यदि शास्त्रविहित विधिके अनुसार मिलता है तो ठीक है अन्यथा जो अलाभको ही परम निर्जराका कारण मानकर उसमें ही संतोष करते हैं, और अपने परिणामोंको शुद्ध रखते हैं, ऐसे मुनीश्वरों को इसी लोकमें मोक्ष है । अर्थात् प्रशम-सुखको मोक्ष-सुखक ही तुल्य समझना चाहिए।
शब्दोदिविषयपरिणाममनित्यं दुःखमेव च ज्ञात्वा । ज्ञात्वा च रागद्वेषात्मकानि दुःखानि संसारे ॥ २३९ ॥ स्वशरीरेऽपि न रज्यति शत्रावपि न प्रदोषमुपयाति ।
रोगजरामरणभयैरव्यथितो यः स नित्यसुखी ॥ २४० ॥
टीकाः-शब्दादयो विषया शब्दरूपरसगन्धस्पर्शास्तेषां परिणाम इष्टानिष्टता शब्दादिविषयपरिणामाच्च यत्सुखं तदनित्यम् । विषयसन्निधौः भवति, तदभावे च न भवतीत्यानित्यम्।
१-नास्ति पदमिदं-फ० पुस्तके । २-नास्तीयं सम्पूर्णा कारिका-फ० पुस्तके केवलं ब्याख्यैवास्यास्तत्र ।