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कारिका २३४-२३५-२३६-२३७] प्रशमरतिप्रकरणम्
प्रशमसुखाभिकांक्षिणः अव्याबाधमोक्षसुखकांक्षिणश्च । सद्धर्मे मूलोत्तरलक्षणे । सुस्थितस्य निश्चलस्य । तस्यैवंविधस्य साधोः कोनोपमानं क्रियेत । अस्मिन् लोके सदेवमानुषे। नास्त्येव देवेषु मानुषेषु वा प्रशमसुखतुल्यं सुखम्, दूरत एव मोक्षसुखमिति ॥ २३६ ॥
__ अर्थ-जिसकी मति अपने गुणोंके अभ्यासमें लगी हुई है, जो दूसरोंकी बातोंमें अन्धा, गूंगा और बहिरा है, जो गर्व, काम, मोह, मत्सर, रोषे, और विषादैसे अभिभूत नहीं होता, जो प्रशम-सुख और बाधा रहित मोक्षके सुखका इच्छुक है और अपने धर्ममें दृढ़ है, देव और मनुष्योंसे युक्त इस लोकमें उस पुरुषकी उपमा किससे दी जा सकती है ?
भावार्थ-जो अपने सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र-गुणोंके पालनमें सदा लवलीन रहता है, दूसरोंके दोषों अथवा गुणोंको नहीं देखता, अपने ही गुणों के आराधनमें व्यग्र रहता है, दूसरोंके दोषों अथवा गुणोंको नहीं कहता है, यदि दूसरा कोई कहता हो तो उधर कान नहीं देता, गर्व, काम और मोह आदिके वशमें नहीं होता, केवल प्रशम-सुख और मोक्ष-मुखकी अभिलाषा करता है, और अपने धर्ममें स्थिर रहता है, ऐसे साधुकी उपमा किससे दी जावे ? इस लोकमें जो देव और मनुष्य रहते हैं, उनमेंसे कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता।
अपि च और भीस्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् ।
प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न व्ययप्राप्तम् ॥ २३७ ॥
टीका-स्वर्गो मोक्षश्च पराक्षं तत्र यत्सुखं तद्वयमपि परोक्षमागमगम्यम् । मोक्ष. सुखमत्यन्तपरोक्षमेव । अत्यन्तमिति सुतरां परोक्षम् । स्वर्गसुखस्य केनचिल्लेशेन किंचिदिह अमानं स्यात्, न तु मोक्षसुखस्येति । अतोऽत्यन्तपरोक्षम् । सर्वप्रमाणज्येष्ठेन प्रत्यक्षेण स्वात्मवर्तिना परिच्छिद्यमानं प्रशमसुखं न च पराधीनं स्वायत्तमेव । नापि व्ययप्राप्तम् । स्वाधीनत्वा. देव। यतस्तन्न व्येति न विगच्छति। वैषयिकं तु सुखं परवशं विषयाधीनं विषयाभावे तु न भवतीति ॥ २३७॥
___ अर्थ-स्वर्गके सुख परोक्ष हैं, और मोक्षका सुख तो अत्यन्त परोक्ष है । एक प्रशम-सुख प्रत्यक्ष है । न वह पराधीन है और न विनाशी ।
भावार्थ-स्वर्ग और मोक्ष-दोनों ही परोक्ष हैं अतः वहाँ जो सुख होता है, वह भी परोक्ष है , उसे केवल शास्त्रसे जान सकते हैं । स्वर्गके सुखका तो थोड़ा-बहुत आभास भी हो सकता है; क्योंकि
१-जो क्रोध दिल ही दिलमें रहता है, बाहर प्रकट नहीं होता, उसे मत्सर कहते हैं। २-जिसमें कोषसे आँखें लाल-लाल हो जाती हैं, गाली बकता है, मारपीट करता है, उसे रोष कहते हैं। ३-अपने प्रियजनों 1 विपत्ति देखकर खिन्न होनेको विषाद कहते हैं।