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________________ कारिका २१९-२२०-२२१] प्रशमरतिप्रकरणम् १५५ भावार्थ-आगममें विहित विधि के अनुसार जो मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति होती है, उससे पुण्य कर्मका आस्रव होता है। और स्वेच्छापूर्वक प्रवृत्ति करनेसे पाप कर्मका आस्रव होता है। गुप्ति समितिका पालन करते हुए सर्व मन, वचन और कार्यकी क्रियाको नियमित करनेसे जो समस्त आस्रवोंका निरोध होता है, उसे संवर कहते हैं। निर्जरणबन्धमोक्षप्रतिपादनायाहनिर्जरा, बन्ध और मोक्षको कहते हैं: संवृततपउपधानं तु निर्जरा कर्मसन्ततिबन्धः । बन्धवियोगो मोक्षस्त्विति संक्षेपानव पदार्थाः ॥२२१ ॥ टीका-एवं संवृतास्रवद्वारस्य तपसि यथाशक्ति घटमानस्यापूर्वकर्मप्रवेशनिरोधे सति पूर्वार्जितकर्मणस्तपसा क्षयः । निर्जरा निर्जरणम् । उपधानमिवोधानं शिरोधरायाः सुखहेतुर्यथा तथा तपोऽपि जीवस्य सुखहेतुत्वादुपधानमुच्यते । कर्मसन्ततिवन्धः । कर्मणां ज्ञानावरणादीनां सन्ततिरविच्छेदो बन्धः कर्मत एव कर्मोपादानमात्मन इत्यर्थः । कास्येन बन्धवियोगो मोक्षः । द्वाविंशत्युत्तरेऽपि प्रकृतिशते निःशेषतः क्षीणे मोक्षो भवति । इत्युक्ताः संक्षेपतो नव पदार्थाः ॥ २२१ ॥ ___ अर्थ-संवरसे मुक्त जीवके तप-उपधानको निर्जरा कहते हैं । कर्मोंकी सन्तानको बन्ध कहते हैं । और बन्धके अभावको मोक्ष कहते हैं । इस प्रकार संक्षेपसे नौ पदार्य हैं। भावार्थ-आस्रवके द्वारोंको बन्द करके शक्तिके अनुसार तपस्या करनेसे नवीन कर्मोंके आगमनके रुक जानेपर पहले बाँधे हुए कर्मोंका तपसे जो क्षय होता है, उसे निर्जरा कहते हैं। उपधान तकियेको कहते हैं । जिस प्रकार तकिया सिरके लिए सुख का कारण होता है, उसी प्रकार तप भी जीवके सुखका कारण है । तप करनेसे सुखकी प्राप्ति होती है । अतः तपको उपधान कहा है, झॉनावरण आदि कौके नाश न होनेको-उनकी परम्पराके बराबर चलते रहनेको बन्ध कहते हैं; क्योंकि कर्मोंसे ही आत्माके कर्मबन्ध होते हैं । अर्थात् पहले बँधे हुए कर्म ही नवीन कर्मोंके बन्धमें कारण होते हैं। इसीसे कर्मोंकी सन्तानको बन्धका कारण होनेसे बन्ध कहा है । बन्धके विलकुल अभाव हो जानेको मोक्ष कहते हैं, क्योंकि १२२ प्रकृतियों के बिलकुल क्षीण हो जानेपर मोक्ष होता है। इस प्रकार संक्षेपसे ये नौ पदार्थ हैं। सम्यग्दर्शनस्वरूपनिरूपणार्थमाह सम्यग्दर्शनका स्वरूप कहते हैं: एतेष्वध्यवसायो योऽर्थेषु, विनिश्चयेन तत्त्वमिति । सम्यग्दर्शनमेतच तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ २२२ ॥ १-मेतत्त, फ०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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