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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [चतुर्दशोऽधिकारः, सम्यग्दर्शनज्ञाने टीका-एतेषु जीवादिपदार्थेषु योऽध्यवसायो विनिश्चयेन परमार्थेन, न दाक्षिण्यानुवृत्त्या, तत्तत्त्वमिति सत्यं तथ्यं तद्भतमित्यर्थः । एतदेवं प्रकारं सम्यग्दर्शनम् । तत्तु द्विहेतुकं निसर्गादधिगमावति । निःसर्गः स्वभावः संसारे परिभ्रमतो जीवस्यानाभोगपूर्वकं कर्म क्षपयतो ग्रन्थिस्थानप्राप्तस्यापूर्वकरणलाभाद् ग्रन्थि विदारयतः शुभाध्यवसायस्य विभिन्नग्रन्थेरनिवृत्तिकरणप्राप्तौ शुभपरिणामस्य स निसर्गतः स्वभावादेव तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शन मुत्पद्यते । भगवत्प्रतिमादर्शनात् साधुदर्शनाद्वा शुभपरिणामो निसर्गः स्वभावश्चैकार्थाः । कदाचिद् ग्रन्थौ भिन्ने शिष्यमाणस्यागमोपदेशादाकर्णयतः शृण्वतोऽधिगमसम्यग्दर्शनमुत्पद्यते ॥ २२२ ॥
अर्थ-इन जीवादि पदार्थोंमें परमार्थसे 'ये तत्त्व हैं । ऐसा जो अध्यवसाय-परिणाम होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। वह सम्यग्दर्शन स्वभावसे अथवा परोपदेशसे होता है।
___ भावार्थ-उक्त जीवादि पदार्थोम परमार्यसे, न कि दूसरोंके आग्रहसे, सत्यताकी जो प्रतीति होती है--कि यही तत्त्व हैं, यही तत्त्व हैं, यही सत्य है, यही वास्तविक है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । उस सम्यग्दर्शनके दो हेतु हैं--एक निसर्ग और दूसरा अधिगम । निसर्ग स्वभावको कहते हैं । संसारमें भ्रमण करता हुआ जीव काललब्धिके प्राप्त होनेपर विना भोगे हो कर्मोंका क्षपण करता है। और मिथ्यात्वरूपी प्रन्थिस्थानको प्राप्त करके अपूर्वकरण नामके परिणामोंके द्वारा ग्रन्थिको भेदता है । शुभ परिणामोंके द्वारा मिथ्यात्व-प्रन्थिका भेद करनेके वाद अनिवृत्तिकरण नामके परिणामोंको प्राप्त करता है। तब उसके स्वभावसे ही तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । इस प्रकार जिनन्द्रदवेकी प्रतिमाके दर्शनसे अथवा साधुओंके दर्शनसे पूर्वोक्त रीतिसे जो सम्यक्त्व प्रकट होता है, वह निसर्ग सम्यग्दर्शन है । तथा ग्रन्थि-भेद होनेपर गुरु महाराजके उपदेश सुननेसे जो सम्यक्त्व होता है, वह अधिगम सम्यग्दर्शन है । सारांश यह है कि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके दो कारण हैं--एक अन्तरङ्ग और दूसरा बाह्य । अन्तरङ्ग कारण दोनों ही सम्यग्दर्शनमें समान हैं; क्योंकि दोनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शनों की उत्पत्तिके लिए मिथ्यात्वरूपी ग्रन्थिका छेदा जाना आवश्यक है और उसके छेदके लिए अधाप्रवृत्ति करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामके परिणामोंका होना जरूरी है । अतः आन्तरिक प्रक्रिया तो दोनोंमें समान है। केवल बाह्य कारणोंमें अन्तर है । निसर्ग सम्यग्दर्शनमें जिन-प्रतिमा, साधु वगैरहका दर्शन वाह्य कारण होता है। उनके दर्शन मात्रसे ही शुभ भावोंकी धारा बहने लगती है । किन्तु अधिगम सम्यक्त्वमें परका उपदेश बाह्य कारण होता है । दोनोंमें केवल इतना ही अन्तर है।
एतदेव दर्शयतिइसी बातको कहते हैं :शिक्षागमोपदेशश्रवणान्येकार्थकान्याधिगमस्य ।
एकार्थः परिणामो भवति निसर्गः स्वभावश्च ॥ २२३ ॥ १-विदारत फ०।