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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [चतुर्दशोऽधिकारः, नवपदार्थाः गुणों-कार्योंसे काल द्रव्यको जाना जाता है । तथा सभ्यक्त्व वगैरह जीवके गुण हैं; क्योंकि जीव तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं, शास्त्रों को पढ़ते, चारित्रका पालन तथा उपदेश करते हैं, शक्तिका प्रदर्शन करते हैं, लिपि, अक्षर वगैरहका ज्ञान कहते हैं। ये सब जीवके गुण-उपकार जानने चाहिए।
एवं जीवाजीवानभिधाय प्रपञ्चेन पुण्यापुण्यपदार्थद्वयमभिधित्सुराहइस प्रकार जीव और अजीव पदार्थको कह कर विस्तारसे पुण्य और पाप पदार्थको कहते हैं:
पुद्गलकर्म' शुभं यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् ।
यदशुभमथ तत्पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम् ॥ २१९ ॥
टीका-द्विचत्वारिंशत्प्रकृतयः शुभाः पुण्याभिधानाः । दूयधिकाशीतिरप्रशस्तप्रकृतीनां पापाभिधाना एवमाहुः सर्वज्ञा इति आगमग्राह्यः पदार्थोऽयमिति प्रतिपादयति ॥२१९॥
अर्थ-जो पुद्गल कर्म शुभ हैं, वह पुण्य है, ऐसा जिनशासनमें देखा गया है। तथा जो अशुभ है, वह पाप है, ऐसा सर्वज्ञ भगवान्ने कहा है। ..
भावार्थ-सर्वज्ञदेव कर्मोंकी ४२ शुभ प्रकृतियोंकों पुण्य और ८२ अशुभ प्रकृतियोंको पाप कहते हैं । सर्वज्ञका निर्देश करनेसे ग्रन्थकारका अभिप्राय यह है कि पुण्य-पाप पदार्थ आगमका विषय है। और जिनशासनमें उसका विस्तारसे वर्णन पाया जाता है ।
आस्रवसंवरौ निरूपयतिआस्रव और संवरका निरूपण करते हैं :
योगः शुद्धः पुण्यास्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः ।
वाकायमनोगुप्तिनिरास्रवः संवरस्तूक्तः ॥ २२० ॥ टीका-योगों मनोवाकायारव्यः स खल्वागमपूर्वको व्यापारः स्वेच्छाकृतःस पापस्यास्रवइति । सर्वेषामेवास्रवाणां निरोधो गुप्तिसमितिपुरःसरो नियमितमनोवाकायक्रियस्य संवरो भवति स्थगितास्रवद्वारस्येत्यर्थः ।। २२०॥
... अर्थ-शुद्ध योगसे पुण्य कर्मका आस्रव होता है और अशुद्ध योगसे पाप कर्मका आस्रव होता है । वचन गुप्ति, कायगुप्ति और मनोगुप्तिपूर्वक आस्रवके रुकनेको संवर कहते हैं । इसका निरूपण पहले किया जा चुका है।
१-नास्ति पदमिदं ब० पुस्तके। २-नास्त्वत्र पदद्वयमिद ब० पुस्तके । ३-अस्मात् पूर्व 'आस्रवसंवरौ निरूपयति' इत्यात्मकः पाठ उपलम्यते ब० पुस्तके।
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