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________________ १४८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [चतुर्दशोऽधिकारः, षड्व्याणि तदेव वैशाखस्थानकं दर्शयतिउसीको स्पष्ट करते हैं:-- तत्राधोमुखमल्लकसंस्थानं वर्णयन्त्यधोलोकम् । स्थालमिव तिर्यग्लोकमूर्ध्वमथ मल्लकसमुद्गम् ।। २११॥ टीका-तत्र तस्मिन् लोके अधोलोकविभागः अधोमुखमल्लकाकारः उपरि संक्षिप्तमधो विशालं वर्धमानकमधोमुखं भवति । रजतस्थालाकारं तिर्यग्लोकं वर्णयन्ति । तियग्लोकादूर्ध्व मल्लकसंपुटाकारमूर्ध्वलोकं वर्णयन्ति । मल्लकसमुद्गश्च एकं वर्धमानकमूर्ध्वमुखमपरं शरावमधोमुखं तस्योपरीति । एतत् प्रतिपादयति काका । लोकोऽधः सप्तरज्जुप्रमाणो विस्तरेण । तिर्कग्लोको रज्जुप्रमाणः । शरावसंपुटमध्ये पञ्चरज्जुप्रमाण उपर्येकरज्जुप्रमाण इति ॥ २११ ॥ अर्थ--उस लोकमें अधोलोकको नीचे मुख किये हुए सकोरेके आकार बतलाते हैं, मध्यलोकको थालीके आकार बतलाते हैं और ऊर्ध्वलोक नीचे-ऊपर रक्खे हुए दो सकोरोंके आकार बतलाते हैं । भावार्थ-लोकके तीन भाग हैं--अधोलोग, तिर्यग्लोक या मध्यलोक और ऊर्ध्व लोकका आकार नीचा मुख करके रक्खे हुए सकोरेके जैसा है । सकोरेको उलटकर रख देनेसे उसके नीचेका भाग चौड़ा और ऊपरका भाग सकरा होता है । वैसे ही, अधोलोकके तलका विस्तार सात राजू है और ऊपरका विस्तार एक राजू है । तिर्यग्लोक थालीके आकार गोल है। उसका विस्तार एक राजू है। तिर्यग्लोकके ऊपर दो सकोरोंके आकारका ऊलोक है। अर्थात् एक सकोरको ऊपरकी ओर मुँह करके रखो और दूसरेको उसके ऊपर नीचको मुख करके रखो, तो उनके आकारके समान ऊलोकका आकार जानना चाहिए। उसके मध्यका विस्तार पाँच राजू है और ऊपरका विस्तार एक राजू है । एवमधस्तिर्यगूज़ च विभक्ते लोके को विभागः कतिविध इति दर्शयतिइस प्रकार लोकके तीन विभाग बतलाकर अब प्रत्येक विभागके भेद बतलाते हैं: सप्तविधोऽधोलोकस्तिर्यग्लोको भवत्यनेकविधः । पञ्चदशविधानः पुनरूर्वलोकः समासेन ॥ २१२॥ टीका-समासेनेति संक्षेपेण । रत्नप्रभादिभेदेन महातमःप्रभान्तेन सप्तधाऽधोलोकः । तिर्यग्लोकोऽनेकप्रकारो जम्बूद्वीपादिभेदेन लवणसमुद्रादिभेदेन च । असंख्येया द्वीप समुद्रा इति । ज्योतिष्कभेदा अपि तिर्यग्लोक एव । ऊर्ध्वलोकश्च पञ्चदशभेदः । दशकल्पा: सौधर्मादयः आनतप्राणतकावेककल्पः, एकेन्द्रस्वामित्वात् । आरणाच्युतौ च । एवं दश कल्पाः । १-काका ब० । २- पञ्चदशविधान ' इत्यारभ्य ' सप्तधाऽधोलोकः' इतिपर्यन्तः पाठः ब. प्रतौ नास्ति ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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