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कारिका २०९-२१०] प्रशमरतिप्रकरणम्
१४७ वैसे ही धर्मादि द्रव्य भी अनादि हैं । लोक कभी भी धर्मादि द्रव्योंसे रहित नहीं था। पुद्गलद्रव्यके औदयिक और पारिणामिकभाव होते हैं । पुद्गलका परमाणुरूप परिणाम तो अनादि है और द्वयणुक बादल, इन्द्रधनुष वगैरह परिणाम सादि है । परमाणुओं और स्कन्धोंमें जो रूप-रस वगैरह परिणाम पाये जाते हैं तथा परमाणुओंके मिलनेसे जो द्वथणुक वगैरह परिणाम बनते हैं, वे औदयिक हैं। सारांश यह है कि अनादि परिणामको पारिणामिकभावमें और सादि परिणामको औदयिकभावमें समझना चाहिए। रूप, रसादि परिणाम यद्यपि अनादि हैं; । परन्तु उनमें जो हानि-वृद्धि होती रहती है। वह सादि है ।
जीवाः पुनः सर्वभावेषु औपशमिकादिषु वर्तन्त इति पूर्वमेवभावितम् । अथकोऽयं लोक इत्याशङ्कते, किं द्रव्यान्तरमुतान्यत् किंचिदित्याह
__ अब यह बतलाते हैं कि यह लोक क्या वस्तु है ? क्या यह भी कोई द्रव्य है या और और कुछ है ?
जीवके औपशमिक वगैरह पाँचों ही भाव होते हैं, यह पहले बतला चुके हैं।
जीवाजीवा द्रव्यमिति षडिधं भवति लोकपुरुषोऽयम् ।
वैशाखस्थानस्थः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः ॥ २१०॥
टीका- जीवा अजीवा धर्माधर्माकाशपुद्गलाः कालश्च षड् द्रव्याणि । लोकपुरुषः पुरुष इव लोकपुरुषः प्रतिविशिष्टस्थानत्वात् । अत्र जीवादीनां द्रव्याणामाधारभूतं यत्क्षेत्र तल्लोकशब्दामिधेयं लोकपुरुष इत्युक्तम् । तत्र निबन्धनमाह-वैशाखस्थान इति । वैशाखं धानुष्कस्यस्थानकम् । ऊर्ध्वमवस्थितः पुरुषो विक्षिप्तजङ्गाद्वयः कट्यां व्यवस्थापिताकुञ्चितहस्तद्वयो यथा तल्लोकपुरुष इति ॥ २१०॥
. अर्थ-इस प्रकार जीव और अजीवके भेदसे छह द्रव्य होते हैं । यही लोक-पुरुष है । दोनों हाथोंको कमरके दोनों ओर कूलोंपर रखकर, पैर फैलाकर खड़े हुए पुरुषके समान उसका आधार है।
भावार्थ-छहों द्रव्योंके समूहको लोक कहते हैं । अर्थात् जितने क्षेत्रमें छहों द्रव्य रहते हैं, उतने क्षेत्रको लोक कहते हैं । वह लोक-पुरुषके आकार है । अतः उसे यहाँ लोक-पुरुषके नामसे कहा है । दोनों जाँघोंको फैलाकर और दोनों हाथों को कमरके दोनों बाजुओंपर रखकर खड़े हुए मनुष्यके समान लोकका आकार जानना चाहिए । यथा
१-पंचास्तिकाय।