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________________ कारिका २०५ ] प्रशमरतिप्रकरणम् १४३ गर्दनका भाग अन्य भागरूप ही है । अथवा यह भी कह सकते हैं कि घट घटरूपसे सत् है और पटरूपसे असत् है । अतः घट 'स्यात् है और स्यात् नहीं है' कहा जाता है। इन्हीं दोनों धर्मोको यदि एक साथ कहनेकी वित्रक्षा हो तो चौथा 'स्यात् अवक्तव्य' भङ्ग होता है । जैसे यदि उसी घटको पटादि वगैरह परपर्यायोंसे और अपनी ऊँचा, गोलाकार वगैरह पर्यायोंसे एक साथ कहा जाये तो न तो उसे असत् ही कहा जा सकता है और न सत्की कहा जा सकता है । इस तरह एक साथ दोनों धर्मोकी विवक्षा होने पर वचनके अगोचर होनेसे वस्तु 'स्यात् अवक्तव्य' कही जाती है । उसी घटको जब अपनी पर्यायोंसे तथा एक साथ अपनी और परकी पर्यायोंसे विवक्षित किया जाता है तो वह घट 'स्यात् सत् और अवक्तव्य' कहा जाता है । उसी घटको जब परपर्यायोंकी अपेक्षासे और एक साथ अपनी तथा परपर्यायोंकी अपेक्षासे विवक्षित किया जाता है तो वह घट ' स्यात् असत् और अवक्तव्य' कहा जाता है । वही घट जब क्रमशः और एक साथ अपनी और परकी पर्यायोंसे विवक्षित किया जाता है, तो उसे 'स्यात् सत् और असत् और अवक्तव्य' कहा जाता है । इस प्रकार वचनके ये सात प्रकार हैं । इनमें स्यात् सत् , स्यात् असत् , और स्यात् अवक्तव्य ये तीन भङ्ग सकलादेश हैं और शेष चार भङ्ग विकलादेश हैं। वस्तुके जिस धर्मकी विवक्षा होती है, उसे अर्पित या प्रधान कहते हैं। और जिस धर्मकी विवक्षा नहीं होती, उसे अनर्पित या गौण कहते हैं । इस गौणता और मुख्यताके भेदसे उक्त सात विकल्प होते हैं । इन्हें ही सप्तभङ्गी नय कहते हैं । उत्पादादित्रयभावनायाहउत्पाद वगैरहका स्वरूप कहते हैं: योऽर्थो यस्मिन्नाभूत् साम्प्रतकाले च दृश्यते तत्र । तेनोत्पादस्तस्य विगमस्तु तस्माद्विपर्यासः ॥ २०५॥ * टीका--घटार्थो मृत्पिण्डे नास्ति नाभूदित्यर्थः । स च मृत्पिण्डश्चक्रकारोपणादिना परिकर्मविधिना वर्तमानकाले परिनिष्पन्न उपलभ्यते घटोऽयमुत्पन्न इति । तेनाकारणोत्पादः स्तस्य घटस्येति । विगमस्तु विनाशस्तस्मादुत्पादाद्विपर्यासो विपरीतः । पिण्डो विनष्टो नोपलभ्यते न दृश्यत इति ॥ २०५ ॥ अर्थ-जिसमें जो अर्थ नहीं था; किन्तु वर्तमानमें देखा जाता है । उसकी उस अर्थसे उत्पत्ति होती है और विनाश उससे विपरीत है। भावार्थ-मिट्टीके पिण्डमें घट पदार्थ नहीं था; किन्तु उस मिट्टीके पिण्डको कुम्हारके चाकपर रखकर जब घुमाया जाता है तो वह घड़ेकी शकलमें बदल जाता है । इस प्रकार मिट्टीके पिण्डकी १-सप्तमङ्गीका विस्तृत विवेचन ' इसकी भूमिका और सप्तभंगीतरंगिणी' में देखिए । २-विपर्यास्ते मु० प्रतो नास्ति।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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