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________________ १४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [एकादशोऽधिकारः, जीवादिनवतत्त्वानि विकल्पाः सूचिताः-स्यादवक्तव्यः, स्यादस्ति चावक्तव्यश्च, स्यान्नास्ति चावक्तन्यश्च, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्चेति । तत्रास्ति च नास्ति चेति एकस्य घटादेव्यस्य देशो ग्रीबादिः सद्भावपर्यायेणादिष्टो ग्रीवत्वेन, अपरश्च देशस्तथैव वस्तुनोऽसद्भावपर्यायैरादिष्टो वृत्तबुघ्नत्वेन परगतपर्यायेण वा तद्वस्तु अस्ति च नास्ति चेति भावना कार्या । स्यादवक्तव्य इति सकल मेवाखण्डितं तद्वस्तु अर्थान्तरभूतैः पटादिभिः पर्यायैनिजैश्चोर्ध्वकुण्डलोष्टायतवृत्तग्रीवादिभिर्युः गपदभिन्नकाले समादिष्टं नास्तीति वक्तुं न शक्यते, न चास्तीति वक्तुं पार्यते । युगपदादेश द्वयप्राप्तौ वचनविशेषातीतत्त्वादेवावक्तव्यमिति । अस्ति चावक्तव्यश्चेति पञ्चमो विकल्पः । तस्यैव घटादेर्वस्तुनः एको देशः सद्भावपर्यायैरादिष्टोऽपरो देशः स्वपर्यायैः परपर्यायैश्च युगपदादिष्ट स्तद्र्व्यमस्ति चावक्तव्यं च । पष्ठो विकल्पो नास्ति चावक्तव्यश्च तस्यैव घटादेव्यस्य एकदेशः परपर्यायैरादिष्टः, अपरदेशः स्वपर्याथैः परपर्यायैश्च युगपदादिष्टः, तद्रव्यं नास्ति चावक्तव च भवति । अथ सप्तमो विकल्पः तदेव घटादिद्रव्यमेकस्मिन् देशे स्वपर्यायैरादिष्टम् , अन्यत्र देशे परपर्यायैरादिष्टम् , अपरत्र देशे स्वपर्यायैः परपर्यायैश्च युगपदादिष्टम् , अस्ति च नास्ति चावक्तव्यं चेति । एवमयं सप्तप्रकारो वचनविकल्पः । अत्र च सश्लादेशास्त्रयाःस्यादस्ति, स्यानास्ति, स्यादवक्तव्यः । शेषाश्चत्वारो विकलादेशाः स्यादस्ति च नास्ति, च क्रमेण भावना, स्यादस्ति चावक्तव्यश्च, स्यानास्ति चावक्तव्यश्च, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्चेति । अतोऽन्यथा चान्यथार्पितं विशेषितमुपनीतम् , अनर्पितमविशेषितमनुपनीतं चेत्येतस्माद्विशेषात् सप्तविकल्पं भवतीति ॥ २०४ ॥ अर्थ-जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षणसे युक्त है, वह सब सत् है । और जो उससे विपरीत है, वह असत् है । इस प्रकार अर्पित और अनर्पितके भेदसे वस्तु सत् और असत् होती है। भावार्थ-उत्पत्तिको उत्पाद कहते हैं । विनाशको विगम अथवा व्यय कहते हैं । और नित्यताको घौव्य कहते हैं । जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाया जाता है, वह सब सत् होता है । जैसे किसीने अपनी सीधी अंगुलीको मोड़ लिया। तो सीधीसे टेड़ी होनेपर भी अंगुली अंगुली ही रही, अतः वह ध्रौव्य है । तथा सीधापन नष्ट होकर टेडापन आगया । अतः सीधेपनका नाश हो गया और टेड़ेपनकी उत्पत्ति हो गई । इस प्रकारसे जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होता है, वह सब सत् है और जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य नहीं होते हैं, वह असत् है । जैसे गधेके सींग । इससे ग्रन्थकारने 'स्यात् है' और 'स्यात् नहीं, है' इन दो विकल्पोंको कहा है। ‘सदसद् ' से 'स्यात् है और स्यात् नहीं है' यह तीसरा विकल्प बतलाया है। और 'अन्यथापितानर्पितविशेष ' से शेष चार विकल्प सूचित किये हैं । वे चार विकल्प इस प्रकार है :-'स्यात् अवक्तव्य है', 'स्यात् है और अवक्तव्य है', 'स्यात् नहीं है और अवक्तव्य है', स्यात् है, स्यात् नहीं है और अवक्तव्य है। पहला और दूसरा भङ्ग ऊपर स्पष्ट कर दिया गया है। तीसरा भङ्ग इस प्रकार है :-किसी एक घट वगैरह पदार्थका गर्दन वगैरह भी गर्दन वगैरहकी अपेक्षासे सत् है और उसीके अन्य भागों की अपेक्षासे असत् है । अर्थात् गर्दनका भाग गर्दनरूप ही है, न अन्य भाग गर्दनरूप हैं और न
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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