________________
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [एकादशोऽधिकारः, जीवादिनवतत्त्वानि नान्येन । एवं कालात्मा वर्तमानतयादिष्टोऽस्ति, अतीतानागततया नास्ति। औदयिकादीनामन्यतमेन भावेनादिष्टोऽस्ति, शेष भावेन नास्ति ॥ २०२ ॥
__अर्थ-नय विशेषसे सब द्रव्योंमें ' द्रव्यात्मा ' ऐसा व्यवहार होता है । आत्माकी अपेक्षासे आत्मा है और परकी अपेक्षासे अनात्मा है।
भावार्थ-शाब्दिक व्यवहारको उपचार कहते है वह उपचार किसी निमित्तको लेकर किया जाता है। वह निमित्त जीव और अजीव-दोनोंमें ही समान है, क्योंकि जो अन्वयरूपसे सब पर्यायोंमें गमन करता है, उसे आत्मा कहते हैं । अतः जिस प्रकार चेतनद्रव्य अपनी पर्यायोंमें अन्वयी है, उसी प्रकार पुद्रलादिकद्रव्य भी अपनी पयायोंमें अन्वयी हैं । अत: उन्हें भी आत्मा शब्दसे कहा जाता है। इसलिए सामान्यग्राही नयके द्वारा सब द्रव्योंमें आत्मा शब्दका व्यवहार होता है। वह आत्मा भी अपने द्रव्य, क्षेत्र वगैरहकी अपेक्षासे ही है, सर्वथा नहीं है । अर्थात् जब उस आत्माको उसीके स्वरूपसे विवक्षित किया जाता है, तब वह है और जब उसे पररूपसे विवक्षित किया जाता है, तो वह नहीं है । जिस प्रकार अपने अस्तित्वको अपेक्षासे वह 'सत् ' कही जाती है, उसी प्रकार दूसरेके अस्तित्वकी अपेक्षासे वह 'असत् ' कही जाती है। सारांश यह है कि हरेक वस्तु अपने स्वरूपसे ही है, और पर स्वरूपसे नहीं है । जैसे घट अपने स्वरूपसे है, और पट अपने स्वरूपसे है किन्तु न घटमें पटका स्वरूप पाया जाता है और न पटमें घटका स्वरूप पाया जाता है । अतः घट, पटं स्वरूपसे नहीं है और पट घट स्वरूपसे नहीं है । इसी प्रकार संसारकी सभी वस्तुएँ अपने अपने स्वरूपसे 'सत् ' हैं और अपनके सिवा शेष सब स्वरूपोंसे 'असत् ' हैं, इसी प्रकार आत्मा अपने क्षेत्रकी अपक्षासे है और पर-क्षेत्रकी अपेक्षासे नहीं है । वर्तमानकाल भी अपेक्षासे है, अतीत, अनागत कालकी अपेक्षासे नहीं है । तथा औदयिक आदि भावों से किसी एक विवक्षित भावकी अपेक्षा है और अविवाक्षित अन्य भावोंकी अपेक्षा नहीं है । सारांश यह है कि प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने भावकी अपेक्षासे ही सत् होती है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, और परभावकी अपेक्षासे असत् होती है । स्वद्रव्य और परद्रव्यका उदाहरण ऊपर दिया जा चुका है। वही घट जिस क्षेत्रमें वर्तमान है, उसी क्षेत्रकी अपक्षासे सत् है, अन्य क्षेत्रकी अपेक्षासे सत् नहीं है । यदि ऐसा नं माना जावेगा तो या तो घट व्यापक हो जावेगा या उसका बिलकुल अभाव ही हो जायगा। तथा घट जिस कालमें है, उसी कालकी अपेक्षासे सत् है, अन्य कालकी अपेक्षासे असत् है । यदि ऐसा न माना जायगा तो या तो घट नित्य हो जावेगा या उसका अभाव हो जायेगा। इसी तरह घट अपने विवाक्षित भावको ही अपेक्षा है, अविवक्षित परभावकी अपेक्षा नहीं है। यदि ऐसा न माना जायगा तो सम्पूर्ण व्यवस्था भंग हो जावेगी।
इस प्रकार समस्त वस्तुएँ सत् और असत् जाननी चाहिए।
एवं संयोगाल्पबहुत्वा कशः स परिमृग्यः । जीवस्यैतत्सर्वं स्वतत्त्वमिह लक्षणैर्दृष्टम् ॥ २०३॥