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________________ १३८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [एकादशोऽधिकारः, जीवादिनवतत्त्वानि भावार्थ-मार्गणा खोजने अथवा परीक्षा करनेको कहते हैं । द्रव्य आदि आठ प्रकारोंसे आत्माकी खोजकी जाती है। सम्प्रत्येषां द्रव्याद्यात्मनां स्वरूपविवक्षयाहअब इन द्रव्यात्मा आदिका स्वरूप कहते हैं:जीवाजीवानां द्रव्यात्मा सकषायिणां कषायात्मा। योगः सयोगिनां पुनरुपयोगः सर्वजीवानाम् ॥२०॥ टीका-जीवत्वमनादिपारिणामिको भावः। जीवश्च द्रव्यमन्वयी सर्वत्र परिणामपर्याय नुस्यूतं द्रव्यति तांस्तान् पर्यायानामोति नारकादीन् । सर्वत्राविच्छेदेन वर्तते । एकं द्रव्यं द्रव्यात्मा सर्वत्रान्वेति यस्मादिति । एवमजीवानामपि योऽन्वय्यंशः पुद्गलानां स द्रव्यात्मा। धर्मादीनां तु परप्रत्यया उत्पादादिपरिणामास्तत्राप्यन्वयी द्रव्यात्मेति । कषायाः क्रोधादयस्ते सन्ति येषां ते कषायणस्तेषां कशयिणामात्मा कषायैः सहैकत्वापत्तेः कषायात्मेत्मुच्यते । योगा मनोवाकायलक्षणास्तदेकत्वपरिणत आत्मा यः स खलु योगात्मा सयोगानामिति । उपयोगो ज्ञानदर्शनव्यापारो शेयविशेषस्तत्परिणत आत्मा उपयोगात्मेति सर्वजीवविषयः । सर्वग्रहणमुक्तपरिग्रहार्थम् ॥ २००॥ अर्थ-जीव और अजीवोंके द्रव्यात्मा होती है । सकषाय जीवोंके कषायात्मा होती है। सयोगियोंके योगात्मा होती है और सब जीवों के उपयोगात्मा होती है । भावार्थ-जीवस्व अनादि पारिमाणिकमाव है । और जीव अन्वयी द्रव्य हैं; क्योंकि वह सब पर्यायोंमें अनुस्यूत रहता है। जो नारकादिक पर्यायोंको प्राप्त करता है, उसे द्रव्य कहते हैं । जीव भी अपनी सब पर्यायोंमें रहता है, अत: वह द्रव्य है । द्रव्यको ही द्रव्यात्मा कहते हैं। क्योंकि वह अपनी समस्त दशाओंमें अन्वित रहता है। इसी प्रकार अजीव पुद्गल, धर्म वगैरहमें जो अन्वयी अंश होता है उसे द्रव्यात्मा कहते हैं। इस तरह जीव, अजीव द्रव्योंके द्रव्यात्मा होती है । सारांश यह है कि चेतन और अचेतन छहों द्रव्योंमें जो स्थितिरूप अंश है, जो कि द्रव्यकी प्रत्येक पर्यायमें कायम रहता है, उसे यहाँ 'आत्मा' शब्दसे कहा गया है । क्योंकि सब द्रव्य अपने उस अंशको कभी नहीं छोड़ते हैं । जिस प्रकार सोनेके अभूषणोंमें सुवर्णत्व स्थायी अंश है, अतः वह सुवर्णकी आत्मा कहा जाता है, उसी प्रकार सब द्रव्योंका अपना अपना स्थायी अंश उनकी द्रव्यात्मा जानना चाहिए । कषायसे युक्त जीवोंको सकषाय कहते हैं और उनकी आत्माको सकषायात्मा कहते हैं। क्योंकि उनकी आत्मा कषायके साथ हिली-मिली होती है । मन, वचन, कायरूप योगसे युक्त आत्माको योगात्मा कहते हैं । वह योगात्मा सयोगियोंके. होती है । जानने-देखनेरूप व्यापारको उपयोग कहते हैं । उससे युक्त आत्माको उपयोगात्मा कहते हैं। यह उपयोगात्मा सभी जीवोंके होती है। क्योंकि जीवका लक्षण उपयोग ही है।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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