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कारिका १९८-१९९] प्रशमरतिप्रकरणम्
१३७ टीका-एभिरौदयिकादिभिर्भावैः स्थान प्राप्नोतीत्यात्मा । स्थानमिति स्थीयते यत्र संसारे तत्स्थानं सामान्येनाविशेषितं प्राप्नोति । यत उक्तम्
" सव्वाट्टाणाई असासयाई इह चेव देवलोएअ ।
असुरसुरनारयाण (नराइणं ) सिद्धिविसेसा सुहाई च ॥१॥" गतिं नारकादीनां च गतिं प्राप्नोति भावैरेव । ननु च गतिस्थानयोर्नास्ति विशेषः ? उच्यते-नरकगतावेव जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि स्थानानि बहूनि सन्तीति तत्प्रतिपादनार्थ स्थानग्रहणं पृथगिति । इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि । एषां सम्पत्समग्रताऽविकलतावाऽतश्चेन्द्रियसम्पदः प्राप्नोतीत्यात्मा । अथवा इन्द्रियाणि च सम्पदश्वविभूतय इत्यर्थः । तथा सुखं दुःखं औदयिक. भाववशादवानोति । अतति गच्छति तांस्तान् स्थानादिविशेषान् प्रकर्षणामोतीत्यात्मा । स चाष्टभेदः संक्षेपतोऽनुगन्तव्यः ॥ १९८ ॥
___ अर्थ-इन भावोंसे आत्मा स्थान, गति, इन्द्रिय सम्पत्ति सुख और दुःखको प्राप्त करता है। संक्षेपसे उसके आठ भेद हैं।
भावार्थ-इन औदयिक आदि भावोंसे आत्मा स्थानको प्राप्त करता है । संसारमें जहाँ आत्मा ठहरता है, उसे स्थान कहते हैं । वह स्थान कर्मोके उदयसे ही प्राप्त होता है । मावोंसे ही गति प्राप्त होती है।
शङ्का--गति और स्थानमें तो कोई अन्तर नहीं है ?
समाधान-नरकादिक गतियोंमें ही जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट बहुतसे स्थान हैं। उन्हें बतलानके लिए स्थानका पृथक् ग्रहण किया है । इन्द्रियोंकी सम्पूर्णताको इन्द्रिय-सम्पत् कहते हैं । अथवा इन्द्रियाँ और सम्पत्ति ऐसा अर्थ भी कर सकते हैं । इन्द्रिय-सम्पत् भी भावोंसे ही प्राप्त होती है । तथा सुख-दुःख भी औदयिकभावके कारण ही प्राप्त होते हैं। संक्षेपमें उस आत्माके आठ भेद हैं।
तानष्टौ विकल्पानभिधातुकाम आहउन आठ भेदोंको बतलाते हैं:
द्रव्यं कषाययोगादुपयोगो ज्ञानदर्शने चेति ।
चारित्रं वीर्यं चेत्यष्टविधा मार्गणा तस्य ॥ १९९॥ टीका-द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चरित्रात्मा, वीर्यात्मा, चेति अष्टविधाऽष्टप्रकारा मार्गणा गवेषणा परीक्षा तस्यात्मनः कार्येति ॥ १९९ ॥
____ अर्थ-द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा-ये आत्माकी आठ मार्गणाएँ हैं।
१-श्रीहरिभद्रसूरिकी टीका स्थानका अर्थ-स्थिति-आयु किया है । पृ० ३९। २-चैव-प० । प्र०१८