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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [एकादशाऽधिकारः, जीवादिनवतत्त्वानि भेदः केवलज्ञानम्, केवलदर्शनम् दानलब्धिः, लाभलब्धिः, भोगलब्धिः, उपभोगलब्धिः वीर्यलब्धिः, सम्यक्त्वं चारित्रंचेति । क्षयोपशमजः, क्षायोपशमिकः । सोऽष्टादशभेदः-- मत्यादिज्ञानं चतुर्विधम् , अज्ञानं मत्यज्ञानादि त्रिविधम् , दर्शनं चक्षुर्दर्शनादि त्रिविधम् , दानादिलब्धयः पञ्च, सम्यक्त्वं, चारित्रं, संयमासंयमश्चति । षष्ठश्च सान्निपातिक इति सन्निपातः संयोगः । सन्निपातः प्रयोजनमस्येति सान्निपातिकः संयोगजो भावः । तत्र पञ्चानांभावानामौदयिकौपशमिकशायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकानां द्विकादिसंयोगेन षड्विशतिर्विकल्पा भवन्ति । तत्र विरोधित्वादेकादश त्याज्याः । शेषाः पञ्चदशाविरोधिनः संभवन्ति । तेषामविरोधानां पञ्चदशानां ग्रहणं कृतं प्रकरणकारणेति । ते चामी विज्ञवाः । अन्यः षट्कविकल्पः सानिपातिक इत्यर्थः ॥ १९७ ॥
अर्थ-वे औदयिक आदि भाव इक्कीस, तीन, दो, नौ और अठारह प्रकारके जानने चाहिए। तथा छट्ठा सान्निपातिक नामका एक अन्य भाव भी है । उसके पन्द्रह भेद हैं।
भावार्थ-कर्मोंके उदयसे जो भाव होता है उसे औदयिक कहते हैं । उसके इक्कीस भेद है :-नरक आदि चार गतियाँ, क्रोध वगैरह चार कषाय, स्त्री, पुरुष और नपुंसक लिङ्ग, एक मिथ्या. दर्शन, एक अज्ञान, एक असंयत, एक असिद्धत्व और छह लेश्या । ये सभी भावकर्मके उदयसे होते हैं। पारिणामिकभाव अनादि हैं। उसके तीन भेद हैं-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । ये भाव कर्मोंकी अपेक्षासे नहीं होते हैं।
कर्मोके उपक्षमसे जो भाव होता है, उसे औपशमिक कहते हैं । उसके दो भेद है--सम्यक्त्व और चारित्र । कर्मोके क्षयसे जो भाव होता है, उसे क्षायिक कहते हैं। उसके नौ भेद हैं--केवलज्ञान केवलदर्शन, दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, वीर्यलब्धि, सम्यक्त्व और चारित्र । कर्मों के क्षयोपशमसे जो भाव होता है, उसे क्षयोपशमिक कहते हैं । उसके अठारह भेद है:-चार प्रकारका मत्यादिज्ञान, तीन प्रकारका अज्ञान, तीन प्रकारका चक्षुर्दर्शन आदि दर्शन, पाँच दानादि लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम । इन पाँच भावोंके सिवाय एक छट्ठा भाव और भी है, जिसे सानिपातिकमाव कहते हैं । सान्निपात संयोगको कहते हैं । पाँचों भावोंके संयोगसे जो भाव होते हैं उन्हें सान्निपातिकभाव कहते हैं । अर्थात् सान्निपातिक कोई स्वतन्त्र भाव नहीं है; किन्तु संयोगज भाव है । उसके छब्बीस भेद होते हैं:-दो संयोगी दस, तीन संयोगी दस, चार संयोगी पाँच, और पाँच संयोगी एक । इनमेंसे विरोधी होनेसे ग्यारह भाव छोड़ने योग्य हैं। शेष पन्द्रह भाव अविरोधी हैं । ग्रन्थकारने अविरोधी पन्द्रह भावोंका ही ग्रहण किया है।
एभिर्भावैः स्थानं गतिमिन्द्रियसम्पदः सुखं दुःखम् । संप्राप्नोतीत्यात्मा सोऽष्टविकल्पः समासेन ॥ १९८ ॥