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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दशमोऽधिकारः, धर्मकथा करनको चौरकथा कहते हैं । अमुक देशमें सब तरहका धान्य पैदा होता है, अमुक देशमें दूध बहुतायतसे होता है, अथवा चावल, मूंग, गेहूँ वगैरह उत्पन्न होता है, दूसरी जगह ये चीजें पैदा नहीं होती हैं इस प्रकारकी चर्चाको जनपदकथा कहते हैं । इन कथाओंको मनमें भी नहीं सोचना चाहिए, वचनसे कहनेकी तो बात ही क्या है ! ॥ १८२-१८३ ॥ अपि चऔर भी : यावत्परगुणदोषपरिकीर्तने व्यापृतं मनो भवति । तावद्वरं विशुद्धे ध्याने व्यग्रं मनः कर्तुम् ॥ १८४ ॥ टीका-यावदिति कालपरिमाणम् । यावन्तं कालं परस्य गुणान् दोषांश्च परिकीर्तय त्युद्धाटयति तत्प्रवणव्यापारो भवति । परदोषोद्धट्टने व्यापारयति व्यग्रं मनः करोति, पैशून्यात् कर्मबन्धकारि । तावदिति तावन्तं कालं वरं शोभनतरं निर्जरालाभात् । विशुद्ध ध्याने निर्मले शुक्ले । व्यापृतमक्षणिकं मनः कृतमिति । ननु च परगुणोत्कीर्तनं न निन्द्यम् ? उच्यते अध्यात्मचिन्तापन्नस्य न तेनापि किञ्चित्प्रयोजनम् ॥ १८४ ॥ - अर्थ-जितने समयतक मन दूसरोंके गुण और दोषों के कथनमें लगा रहता है, उतने समयतक उसे विशुद्ध ध्यानमें लगाना श्रेष्ठ है। भावार्थ-दूसरोंके गुणों और दोषोंके प्रकट करनेमें मनके लगे रहनेसे कर्मबन्ध होता है । अतः इसकी अपेक्षा निर्मल ध्यानमें मन लगाना उत्तम है, क्योंकि उससे कर्मोंकी निर्जरा होती है। शङ्का-दूसरेके गुणोंको प्रकट करना तो बुरा काम नहीं है ! समाधान-अध्यात्मचिन्तनमें लगे हुए साधुको उससे भी क्या प्रयोजन है । अतः दूसरों के गुण-दोषोंकी आलोचनामें मनको न लगाकर विशुद्ध ध्यानमें ही उसे लगाना चाहिए। विशुद्धध्यानप्रदर्शनायाहविशुद्धध्यानको कहते हैं : शास्त्राध्ययने चाध्यापने च संचिन्तने तथात्मनि च । धर्मकथने च सततं यत्नः सर्वात्मना कार्यः ॥ १८५॥ टीका-शिष्यन्तेऽनेनोन्मार्गप्रस्थिता इति शास्त्रम्। शास्तीति शास्त्रम्, कर्तृव्यापारविवक्षायाम् । तस्याध्ययनमपूर्वग्रहणं पूर्वगृहीतानुचिन्तनं वाचनादानमित्यादि, अध्यापनग्रहणात् । संचिन्तने संचिन्त्य पश्चादोषादिविशुद्धमध्यापति । पर्यालोचते चात्मनि "किमद्य मया कृतं शास्त्रोक्तं किं वा नो कृतमिति।" दशविधधर्माख्याने च सततं यत्नः सर्वात्मना मनोवाक्कायैः कार्यः॥ १८५॥
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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