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________________ कारिका १८२-१८३] प्रशमरतिप्रकरणम् १२७ कथा । जनपदकथा “ सेतुजानि ऋतुजानि वा सस्यान्यस्मिन् जनपदे जायन्ते, अस्मिन्नतिप्रभूतो गवां रसः, शालिमुद्गगोधूमादि वोत्पद्यतेऽत्र नान्यत्रेति' जनपदकथा । एवमेता मनसापि नालोच्याः किमुत वाचेति दुरात् परिहार्याः॥ १८३ ॥ ___ अर्थ-उन्मार्गका उच्छेद करनेमें समर्थ रचनावाली, और श्रोताजनोंके कानों और मनको माताकी तरह आनन्द देनेवाली आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निदनी धर्मकथा सदैव करनी चाहिए । तथा स्त्रीकथा, आत्मकथा, चौरकथा और देशकथाको दूरसे ही छोड़ देना चाहिए। भावार्थ-जो कथा जीवोंको धर्मकी ओर अभिमुख करती है, उसे आक्षेपणी कहते हैं । जो कथा जीवोंको कामभोगसे विमुख करती है, उसे विक्षेपणी कहते हैं । जो कथा जीवोंको संसारसे भयभीत करती है, उसे संवेदनी कहते हैं । जैसे नरकगतिमें सर्दी और गर्मीका बड़ा कष्ट है। एक क्षणके लिए भी उस कष्टसे छुटकारा नहीं होता । कमसे कम दस हजार वर्षतक और अधिकसे अधिक तेतीस सागर. तक वहाँ यह कष्ट भोगना पड़ता है । तिर्यञ्चगतिमें भी सर्दी, गर्मी, भूख प्यास और अतिभारके दुःखके साथ ही साथ सवारीमें जुतना, डंडे वगैरहसे पीटा जाना, नासिका वगैरहका छेदा जाना आदिका दुःख भोगना पड़ता है । मनुष्यगतिमें भी काना, लंगड़ा, वौना, नासमझ, बहरा, अन्धा, कुबड़ा और कुरूप होनेके सिवाय ज्वर, कोड़, यक्ष्मा, खाँसी, दस्त तथा हृदयके रोगोंका कष्ट भी उठाना पड़ता है । तथा प्रियजनका वियोग, अप्रियजनका संयोग, इच्छित वस्तुका न मिलना, गरीबी, अभागापन, मनकी खेदखिन्नता और वध-बन्धन वगैरहके अनेक दुःखोंको भी भोगना पड़ता है । देवगतिमें अन्य देवोंका उत्कर्ष और अपना अपकर्ष देखकर दुःख होता है, तथा बलवान् देवकी आज्ञासे अन्य अल्प पुण्यवाले देवता हाथी, बैल, घोड़ा, और मयूर वगैरहका रूप धारण करके सवारीके काममें लाये जाते हैं। तथा जब स्वर्गसे च्युत होनेमें छह माह बाकी रह जाते हैं, तो अवधिज्ञानसे अपने गन्दे और भद्दे जन्म-स्थानको जानकर वे बड़े दुःखी होते हैं । इस प्रकारकी संवेदनीकथासे यह जीव चतुर्गतिरूप संसारसे डरकर मोक्षमें लगता है। जो कथा कामभोगसे वैराग्य उत्पन्न कराती है, उसे निवेदनी कहते हैं। जैसे कामभोग क्षणिक हैं, वे आत्माकी तृप्ति करगेमें समर्थ नहीं हैं। स्त्रीकी योनि सदा गीली, दुर्गन्धित, अपवित्र और अत्यन्त ग्लानिकी उत्पन्न करनेवाली होती है। उसमें रति करनेवाला मनुष्य मोहके उदयसे उसी तरह सुख मानता है, जैसे खाजका रोगी खाजको खुजानेमें सुख मानता है। अतः विरक्त हुआ मनुष्य कामभोगोंको छोड़कर मुक्ति-लक्ष्मीकी आराधना करता है । इस प्रकार इन धर्मयुक्त चारों कथाओंको करना चाहिए, क्योंकि ये कथाएँ कुमार्गका नाश करनेमें समर्थ होती हैं, और जिस प्रकार माता हितकर उपदेश देकर अपनी सन्तानके कान और मनको प्रसन्न करती हैं, उसी प्रकार ये कथाएँ भी सुननेवालोंके कान और मनको आनन्दित करती हैं । अतः इन कथाओंको सदा करना चाहिए । और स्त्रोकथा, भक्तकथा, चौरकथा, और देशकथाको दूरसे ही छोड़ना चाहिए । स्त्रियोंके रूप, यौवन, लावण्य, वेष, भूषा तथा चाल-ढालकी चर्चा करनेको स्त्रीकथा कहते हैं । भात, दाल, शाक, खांड, खाजा वगैरह भोजनकी चर्चा करनेको भक्तकथा कहते हैं । चोर अमुक प्रकारसे गड़े खोदते है, ईंटें गलाते हैं, गाँठे छेदते हैं, ताले खोलते हैं, दूसरोंको ठगते हैं इत्यादि चर्चा
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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