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________________ ११८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽधिकारः, धर्मः परोधादबाधनात् । यत्नत इति प्रयत्नतः परीक्ष्य सचेतनमितरद्वा उपकरणादि मलप्रक्षालनादिष्वपि प्रवचनोक्तेन विधिनाऽनुष्ठेयम् । भावशौचं तु निर्लोभता । लोभकषायानुरञ्जितो दुःप्रक्षाल इति, तत्प्रक्षालनं च परमार्थतो भावशौचमिति ॥ १७१ ॥ अर्थ-द्रव्य उपकरण खान-पान और शरीरको लेकर जो शौच किया जाता है, उसे प्रयत्नसे इस प्रकार करना चाहिए कि उससे भाव-शौचमें बाधा न हो। भावार्थ-शौच दो तरहका होता है-एक द्रव्यशौच और दूसरा भावशौच । द्रव्यशौच बाह्य द्रव्यको लेकर किया जाता है। जितना भी चेतन अथवा अचेतन बाह्य द्रव्य है, उसे सदोष जान त्याग देना चाहिए । ज्ञानादिकमें जो सहायक हो, उसे उपकरण कहते हैं। जो उपकरण उद्गम आदि दोषोंसे शुद्ध होता है, वह पवित्र होता है। जो वैसा नहीं होता है, वह अपवित्र है । खान-पान भी जो उद्गम आदि दोषोंसे रहित होता है वह पवित्र होता है और जो वैसा नहीं होता वह अपवित्र है। मल-मूत्रका त्याग करने के बाद लेप और गन्धसे रहित देह पवित्र है । ये सब द्रव्य शौच हैं । इन सब द्रव्य शौचोंको इस प्रकार करना चाहिए कि भावशौचमें कोई बाधा न आवे । अर्थात् उपकरणको खूब देख-भाल करके ही लेना चाहिए और मल-शुद्धिमें भी शास्त्रमें उपदिष्ट विधिके अनुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिए। निर्लोभताको भावशौच कहते हैं । जिसका आत्मा लोभ कषायसे रंगा हुआ है, उसकी शुद्धि होना कठिन है । और लोभका त्याग ही यथार्थमें भावशौच है । संयममधिकृत्याहसंयमधर्मको बतलाते है:-- पञ्चास्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहश्च कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥ १७२ ॥ टीका-सम्यगुपरमः पापस्थानेभ्यः संयमः सप्तदश प्रकार:-पञ्चास्रवाः प्राणातिपातमृषा. भाषणादत्तादानमैथुनपरिग्रहाः कर्मादानहेत-वस्तेभ्यो विरमणं विरतिकरणं संयमः । पञ्चेन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि तेषां निग्रहो नियमनं निरोधः। शब्दादिषु गोचरप्राप्तेष्वरक्तद्विष्टता माध्यस्थ्यम् । कषः संसारः, कष्यते यत्र जीवः स्वकृतैः कर्मभिः कदर्थ्यते पीड्यते तस्यायाः प्राप्तिहेतवः क्रोधादयश्चत्वारस्तेषां जयोऽभिभवउदयनिरोधः, उदितानां वा विफलतापादनम् । दण्डा मनोवाक्यायाख्याः। अभिद्रोहाभि मानेादिलक्षणो मनोदण्डः । हिंस्रपरुषानृतादिलक्षणो वाग्दण्डः । धावनवल्गनप्लवनादि--रूपः कायदण्डः । एभ्यो विरतिनिवृत्तिः । एवमेष संयमः सप्तदशभेदो भवति । आर्षे त्वन्येन क्रमेणायमेवार्थो निबद्धः । पृथिप्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियेषु संयमः । तथा पुस्तकाद्यपरिग्रहः अजीवकायसंयमः । प्रेक्षाप्रेक्षाप्रमार्जनापरिष्ठापनसंयमः मनोवाक्काय संयम इति ॥ १७२ ॥
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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