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________________ ११७ कारिका १६९-१७०-१७१] प्रशमरतिप्रकरणम् मायामधिकृत्याहआर्जवधर्मको कहते हैं : नानार्जवो विशुध्यति न धर्ममाराधयत्यशुद्धात्मा । धर्मादृते न मोक्षो मोक्षात्परं सुखं नान्यत् ॥ १७० ॥ टीका-माया शाठ्यं कौटिल्यम्, तत्प्रतिपक्षमार्जवं ऋजुता यथाचेष्टितं तथाख्याति, न किञ्चिदपढ़ते । यस्तु तथा न करोति, स खल्वनार्जवः, तस्य च शुचिर्नास्ति । तस्माद्यथाख्यातापराधप्रतिपन्नप्रायश्चित्तस्य शुद्धिर्जायते । तद्विपरीतस्य न जातुचिच्छुद्धिः । न चाशु. द्धात्मा धर्ममाराधयति क्षमादिकम् । न चामुं धर्ममन्तरेण मोक्षावाप्तिः । न च मोक्षावाप्तिमन्तरेणैकान्तिकात्यन्तिकादिसुखलाभ इति । तस्मादृजुना भवितव्यमालोचनादाविति ॥ १७० ।। ___ अर्थ–आर्जवके विना शुद्धि नहीं होती । अशुद्ध आत्मा धर्मका आराधन नहीं कर सकता। धर्मके विना मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती और मोक्षसे बढ़कर दूसरा कोई सुख नहीं है । भावार्थ-कुटिलताको माया कहते हैं । उसका प्रतिपक्षी आर्जव है । आर्जव सरलताको कहते हैं । अर्थात् जैसा किया वैसा कह देना और गुरुसे कुछ भी न छिपाना आर्जवधर्म है । जो ऐसा नहीं करता, उसकी शुद्धि नहीं होती । अतः जो अपने किये हुएको जैसाका तैसा गुरुसे कह देता है और गुरु जो प्रायश्चित्त देते हैं, उसका पालन करता है, उसकी शुद्धि होती है। किन्तु जो किये हुए अपराधको छिपा जाता है, उसकी शुद्धि कभी भी नहीं होती। ऐसा कपटी आत्मा क्षमा वगैरह धर्मका भी ठीक ठोक पालन नहीं कर सकता और उनके पालन किये विना मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती। तथा मोक्ष प्राप्त किये विना अविनश्वर सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः साधुको आलोचना आदि करते समय सदा सरल रहना चाहिए। शौचमधिकृत्याहशौचधर्मको कहते हैं : यद्रव्योपकरणभक्तपानदेहाधिकारकं शौचम् । तद्भवति भावशौचानुपरोधायलतः कार्यम् ॥ १७१ ॥ टीका-द्विविधं शौचं द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्य शौच्यं बाह्यद्रव्यम् । बाह्यद्रव्यं च सचेतनमचेतनं वा शैक्षादि, “ अट्ठारस पुरिसेसु वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु । पव्वावणा अणरिहा अणहा पुण इत्थिया चेव ॥” इत्यादि सदोषत्वात्त्याज्यम् । उपकरणमुपकारि ज्ञानादी नाम् । तच्चोद्गमादिशुद्धं शुचि भवति, अन्यथाऽशुचीति । तथा भक्तपानमप्युद्गमादिदोषरहितं शुचि, अन्यथाऽशुचीति । देहशौचं तु पुरीषाधुत्सर्गपूर्वकं निर्लेप निर्गन्धं चेति एतानि प्रयोजनान्यधिकृत्य यत्प्रवृत्तं तदधिकारकं तद्भवति तत्कार्य कर्त्तव्यं भवतीति । भाव शौचस्यानु
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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