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________________ ११६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [नवमोऽधिकारः, धर्मः व्रतोपदेशः । न चाक्षमावान् दयां समादत्ते । अविद्यमानक्षान्तिरक्षमः, नासौ दयां समादत्ते, न संगृह्णातीति । क्रोधाविष्टो हि न कश्चिदपेक्षते चेतनमचेतनं का ऐहिकमामुष्मिकं वा प्रत्यवायम्, तस्माद्यः क्षमाप्रधानः क्षान्त्या वा प्रकृष्टः स साधयत्याराधयति । दशलक्षणमुत्तमं धर्ममिति ॥ १६८ ॥ अर्थ-धर्मका मूल दया है; किन्तु जो क्षमाशील नहीं है वह दयाको धारण नहीं कर सकता । अतः जो क्षमा धर्ममें तत्पर है, वही उत्तम धर्मको साधन करता है। ___ भावार्थ-धर्मके जो दस भेद बतलाये गये हैं, उनका मूल दया है। क्योंकि दया आहंसाको कहते हैं और धर्मका लक्षण आहिंसा ही है। जितने व्रत बतलाये गये हैं वे सब प्राणियों के प्राणों की रक्षा करनेके लिए ही बतलाये गये हैं। किन्तु जो क्षमाशील नहीं है, वह प्राणियोंपर दया नहीं कर सकता; क्योंकि क्रोधी मनुष्यको चेतन-अचेतन अथवा इसलोक-परलोकका कोई ध्यान नहीं रहता । अतः जो क्षमाधर्मके पालन करनेमें सदा तत्पर रहता है वहीं दशलक्षण धर्मका पालन कर सकता है। मार्दवमधिकृत्याहमार्दवधर्मको कहते हैं:विनयायत्ताश्च गुणाः सर्वे विनयश्च मार्दवायत्तः । यस्मिन् मार्दवमखिलं स सर्वगुणभाक्त्वमानोति ॥ १६९ ॥ टीका-विनयो ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराख्यः । तदायत्ता गुणाः। स च विनयो मार्दवायत्तः । मार्दवं च मानविजयः । गर्वे निराकृत उपचारविनयोऽभ्युत्थानाअलिप्रग्रहादिकः शक्यः कर्तुम् । यत्र च पुरुषे मार्दवमखिलं जात्यादिमदाष्टकनिराकारि स सर्वगुणभाग् भवति । ज्ञानदर्शनचारित्रसाध्याः सर्वे गुणास्तत्र संभवन्तीति । तस्मान्मानं निराकृत्य मार्दवमासेवनीयम् ॥ १६९ ॥ ___ अर्थ-सब गुण विनयके आधीन हैं और विनय मार्दवधर्मके आधीन है। जिसमें पूर्ण मार्दवधर्म है वह सब गुणोंको प्राप्त करता है। भावार्थ-सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रके प्रति मन, वचन और कायसे जो आदरभाव प्रगट किया जाता है, उसे विनय कहते हैं। सब गुणोंका मूल विनयगुण है। यह विनयगुण उसीको प्राप्त होता है, जो मानको जीत लेता है, क्योंकि गर्वसे दूर हो जानेपर ही दूसरोंके लिए उठकर खड़ा हो जाना, और हाथ जोड़ना वगैरह काम किये जा सकते हैं। और जिस मनुष्यमें आठों मदोंको दूर करनेवाला मार्दवधर्म वास करने लगता है, वह मनुष्य सर्वगुणसम्पन्न होता है-सभी गुण आकर उसमें बस जाते हैं । अतः मानको दूर करके मार्दवका सेवन करना चाहिए। १-प्रसादः ब०। २-गुणाः सर्वे मूलोत्तराख्याः ब० ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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