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________________ कारिका १६५-१६६-१६७-१६८ ] प्रशमरतिप्रकरणम् दनासे उत्पात्तके निमित्तोंको त्यागना चाहिए और शान्तिके निमित्तोंका पालन करना चाहिए । अर्थात् जिन जिन कारणोंसे कषाय उत्पन्न होती हो, उन उन कारणोंसे दूर रहना चाहिए और जिन जिन कारणोंसे कषाय शान्त होती हो, उन उन कारणोंका अभ्यास करना चाहिए। सेव्यः शान्तिर्मादवमार्जवशौचे च संयमत्यागौ । सत्यतपोब्रह्माकिञ्चन्यानीत्येष धर्मविधिः ॥ १६७ टीका-सेव्योऽनुष्ठेयो दशविधो धर्मः। तान् दशभेदान् नामग्राहमाचष्टे । शान्तिः 'क्षमूल्' सहने, क्षमितव्याः आक्रोशप्रहारादयः । मार्दवं मानविजयस्तद्वत्तापनोदः । आर्जवं ऋजुता यथाचरिताख्यायिता। शुचिभावः शौचम् । अलोभता विगततृष्णत्वम् । संयमः पञ्चास्रवादिविरमणं पृथिवीकायसंयमादिर्वा सप्तदशभेदः । वधबन्धनादित्यागः प्रासुकैषणीयं वा साधुभ्यो भक्तपानवस्त्रपात्रादिदानं यतिरेव ददाति स च त्यागः । सत्यं सद्भयो हितं सत्यम् । तच्चापि संवादनादि चतुर्विधम् । तपो द्वादशभेदमनशनादिकम् । ब्रह्म अब्रह्मणो निवृत्तिमैथुननिवृत्तिरित्यर्थः। अकिञ्चनस्य भाव आकिञ्चन्यं निष्परिग्रहता । धर्मोपकरणाहते नान्यत् किञ्चन परिग्राह्यम् । एष धर्मस्य विधिर्भद इत्यर्थः ॥ १६७ ॥ अर्थ-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, त्याग, सत्य, तप, ब्रह्मचर्य, और आकिञ्चन्यधर्मके ये दस भेद हैं । इनका सेवन करना चाहिए। ___ भावार्थ-धर्मके दस भेदोंका पालन करना चाहिए । उन दस भेदोंको बतलाते हैं। शान्तभावसे गाली-गलौज और मार वगैरहके सहनेको क्षमा कहते हैं। मान कषायके जीतनेको मार्दव कहते हैं । सरलताको आर्जव कहते हैं, अर्थात् जैसा करना वैसा ही कहना आर्जव है। पवित्रताको शौच कहते हैं, अर्थात् लोभ न करना-तृष्णाका न होना-शौच है । आस्रवके कारण हिंसा वगैरह पाँच पापोंसे विस्क्त होना अथवा पृथिवीकाय वगैरहमें संयम करना संयम है। वृध, बन्धन वगैरहका त्यागना अथवा साधुओंको प्रामुक भिक्षा देना त्याग है। हितकर वचन बोलना सत्य है । अनशन आदिको तप कहते हैं । मैथुनसे निवृत्त होनेको ब्रह्मचर्य कहते हैं। परिग्रहके अभावको अर्थात् धर्मके उपकरणोंके सिवाय अन्य कुछ भी परिग्रहके न रखनेको आकिञ्चन्य कहते हैं। क्षान्तः प्राधान्यं प्रदशर्यन्नाहक्षमाधर्मको प्रधानता बतलाते हैं: धर्मस्य दया मूलं न चाक्षमावान् दयां समादत्ते । तस्माद्यः शान्तिपरः स साधयत्युत्तमं धर्मम् ॥ १६८ ॥ टीका-योऽयं दशप्रकारो धर्मस्तस्य धर्मस्य दया मूलम् । दया प्राणिनां रक्षाऽहिंसे. त्यर्थः । सा मूलं प्रतिष्ठा, धर्मस्याहिंसादिलक्षणत्वात् । प्राणिप्राणरक्षणार्थश्वाशेष
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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