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कारिका १७२-१७३ ]
प्रशमरतिप्रकरणं
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अर्थ - आवके कारण पाँच पापोंसे विरक्त होना, पाँचों इन्द्रियोंका दमन करना, चार कषायों को जीतना और मन, वचन, और कायकी प्रवृत्तिको रोकना - इस प्रकार संयम के सत्रह भेद है ।
भावार्थ - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह – ये पाँच पाप कर्मों के आसत्र के कारण हैं । इनका त्याग करना चाहिए । स्पर्शन वगैरह पाँच इन्द्रियोंको वशमें करना चाहिए । जो शब्द आदि कानमें पड़ें उन्हें सुनकर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। जहाँपर जीव अपने द्वारा किये हुए कर्मोंसे सताया जाता है, उसे कष अर्थात् संसार कहते हैं । उस संसारकी प्राप्ति के कारण क्रोध वगैरह कषाय कहे जाते हैं । उन्हें जीतना चाहिए, अर्थात् उनके उदयको रोकना चाहिए । और जो उदयमें आ रहे हैं, उन्हें बेकार कर देना चाहिए ।
दण्डके तीन भेद हैं- मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड । अभिद्रोह अभिमान और ईर्षा वगरैको मनोदण्ड कहते हैं। हिंसक, कठोर और असत्य वचनको वचनदण्ड कहते हैं । दौड़ना कूदना फाँदना वगैरहको कायदण्ड कहते हैं । इनको नहीं करना चाहिए। ये सब संयमके भेद हैं। आगममें इन्हें दूसरी तरहसे गिनाया है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और दोइन्द्रिय; तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रियकी रक्षा करना संयम है । पुस्तक वगैरह न रखना अजीवकाय संयम है ।
त्यागमधिकृत्याह
त्यागधर्मको कहते हैं: --
बान्धवधनेन्द्रियसुखत्यागात्त्यक्तभयविग्रहः साधुः ।
त्यक्तात्मा निर्ग्रन्थस्त्यक्ताहंकारममकारः || १७३ ||
टीका - बान्धवाः स्वजनकाः, धनं हिरण्यसुवर्णादि, इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि, तद्विसुखम् । एषां त्यागादिन्द्रियसम्बन्धी सुखत्यागः । प्राप्तेषु विषयेषु स्पर्शादिषु माध्यस्थ्यम् | त्यक्तभयविग्रहः साधुः, भयमिहपरलोकादानादि सप्तविधम्, विग्रहः शरीरं तस्य त्यागो निष्प्रतिकर्मशरीरता, कलहः द्वन्द्वादिर्वा विग्रहः । व्यक्तात्मा असंयमपरिणामलक्षण आत्मा । अष्टविधग्रन्थविजयप्रवृत्तो निर्ग्रन्थः । त्यक्ताहंकारममकार इति अरक्तद्विष्ट इत्यर्थ ॥ १७३ ॥
अर्थ - कुटुम्ब, धन और इन्द्रिय सम्बन्धी सुखको त्याग देनेसे जिसने भय और कलहको त्याग दिया है तथा अहंकार और ममकारको त्याग दिया है, उस त्यागमूर्ति साधुको निर्ग्रन्थ कहते हैं । भावार्थ - कुटुम्ब, धन, इन्द्रिय-सुख, भय, कलह अथवा शरीर, राग, द्वेष आदि परिग्रहके त्यागनेको त्याग कहते हैं ।
सत्यमधिकृत्याह— सत्यको कहते हैं: