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कारिका १३५-१३६]
प्रशमरतिप्रकरणम् _ अर्थ-शरीरादिको निःस्पृहता, संयमका निर्वाह और यात्राके लिए घावके लेपकी तरह, गाड़ीके पहियेके आँगनकी तरह, और पुत्रके मांसकी तरह साँपकी नाई भोजन करना चाहिए।
भावार्थ-घावपर उतना ही लेप लगाना चाहिए, जितनेसे उसका मबाद दूर हो सके और घाव भर सके। उससे अधिक लेप लगाना बेकार है। पहियेको औंगते समय उतना ही तेल देना चाहिए, जितनेसे गाड़ी सरलताके साथ बोझा ढो सके। अधिक तेल देना बेकार है। इसी प्रकार साधु भी भूखरूपी घावको पूग्नेके लिए आहाररूपी लेपको उतना ही लेता है, जितनेसे शरीरादिकमें लावण्य और सफाई वगैरहका भाव उत्पन्न न हो और शरीरादिक नित्य-क्रियाओंके करनेमें-स्वाध्याय, भिक्षाटन वगैरह तथा गमना-गमन करनेमें समर्थ बना रहे।
तथा साँप जैसे अपने आहारको चट निगल जाता है-चबा-चबा कर नहीं खाता, वैसे ही साधु भी चबा-चबा कर नहीं खाता । तथा
जिस प्रकार चिलाती पुत्रके द्वारा मारी गई पुत्रीका माँस उसके पिता वगैरहने केवल अपने शरीरकी रक्षाके लिए ही खाया था, उस माँसके स्वादमें उनकी कोई आसक्ति नहीं थी, वैसे ही साधुको भी स्वादमें आसक्त न होकर रूखा-सूखा-जैसा मिल जाये, खा लेना चाहिए।
पुनरभ्यवहारमेव विशिनष्टिफिर भी भोजनके ही वारेमें कहते हैं :
गुणवदमूर्छितमनसा तद्विपरीतमपि चाप्रदुष्टेन ।
दारूपमधृतिना भवति कल्प्यमास्वाद्यमास्वाद्यम् ॥ १३६ ॥
टीका-गुणवत्-इष्टरसगन्धम् । मूर्छितं प्रीत रागयुतं चेतो यस्य स मूर्छितमनाः । न मूहितमना अमूर्छितमनाः, तेन अमूर्छितमनसा भक्ष्यमास्वाद्यं भोज्यमिति । तद्विपरीतमिति अमनोज्ञमनिष्टरसगन्धम् । तदपि अप्रदुष्टने अद्विष्टेन द्वेषरहितेन इत्यर्थः । यात्रासाधनमात्रमालम्बनीकृत्य यत्किश्चिदेषणीयमरक्तद्विष्टेन चित्तेनाभ्यवहरेत् । दारूपमा धृतियस्याविकारिणी। काष्ठं हि वाण्यादिभिस्तक्ष्यमाणं न द्वेषं भजते, नापि चन्दनपुष्पादिभिः पूज्यमानं रागमुद्दहति । यथा तदचेतनं रागद्वेषरहितं तद्वत्साधु नापि सत्यपि चेतनावत्व इष्टानिष्टेऽन्नपानलाभे सति भोक्तव्यम् अरक्तद्विष्टेन कल्पनीयमास्वायंभक्षणीयम् । पुनः 'आस्वाद्यम्' इति 'भोक्त. व्यम्' इत्यर्थः ॥ १३६ ॥
अर्थ-लकड़ीके समान धैर्यशाली साधु ग्रहण करनेके योग्य स्वादिष्ट भोजनको राग रहित मनसे और स्वाद रहित भोजनको भी द्वेष रहित मनसे यदि लेता है तो वह भोजनके योग्य भोजन होता है।
-ति भ-फ०, ब०। २-माघ-फ०, ब०।३-युतं च मनो यस्य-मु०। ४-नाद्विष्टनेत्यर्थ:फ०, ब०।५-धुरपि-फ०,-ब०।