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श्राद्धविधि प्रकरण
३७७. "तृतीय प्रकाश” (दूसरा द्वार)
"पर्व-कृत्य"
"मूलगाथा" पव्वेसु पोसहाई बंभ। अणारंभ तव विसेसाई॥
आसोय चित्त अष्टाहिअ । पमुहेसु विसेसेणं ॥११॥ पर्व याने आगममें बतलाई हुई अश्मी चतुर्दशी आदि तिथियोंमें श्रावकको पौषध आदि व्रत लेना चाहिये । "धर्मस्य पुष्टी धत्ते इति पौषधं" धर्मकी पुष्टि कराये उसे पौषध कहते हैं । आगममें कहा है कि:सव्वेसु कालपब्वेसु । पसथ्यो जिणपण हवइ जोगो॥
अठपि चउदसीसुभ। निगमेए हविज पोसहिमो॥१॥ जिन शासनमें पर्वके दिन सदैव मन, वचन, कायाके योग प्रशस्त होते हैं, इससे अष्टमी चतुर्दशी के दिन श्रावकको अवश्य पोषध करना चाहिये।
मूल गाथामें आदि शब्द ग्रहण किया हुआ है इससे यदि शरीरको असुख, प्रमुख पुष्टालंबन से पोषह करनेका शक्ति न हो तो दो दफेका प्रतिक्रमण, बहुतसी सामायिक, विशेष संक्षेपरूप देशावगाशिक व्रत स्वीकारादिक करना। तथा पर्वके दिन ब्रह्मचर्य, अनारंभ, आरंभवर्जन, विशेष तप, पहले किये हुये तपकी वृद्धि, यथाशक्ति उपवासादिक तप, आदि शब्दसे स्नात्र, चैत्य परिपाटी करना, सर्वसाधु वन्दन, सुपात्र दानादि से पहले की हुई देवगुरु की पूजादिसे विशेष धर्मानुष्ठान करना। इसलिये कहा है__जइ सव्वेसु दिणेसु । पालह किरिअं तो हवइ लद्ध॥
जइपुण तहा न सक्का तहविह पालिज्ज पव्वदिणं ॥१॥ __ यदि सर्व दिनोंमें क्रिया पाली जाय तो बहुत ही अच्छा है, तथापि यदि पैसा न किया जाय तो भी पर्वके दिन तो अवश्य धर्म-करनी करो। जैसे विजयादशमी, दिवाली, अक्षयतृतीया, वगैरह लौकिक पर्वमें लोग भोजन वस्त्रादिक में विशेष उद्यम करते हैं, वैसे ही धार्मिक पर्वदिनों में भी अवश्य प्रवर्तना। अन्य दर्शनी लोग भी एकादशी, अमावस्यादिक पर्वमें कितने एक आरंभ वर्जन उपवासादिक और संक्रांति ग्रहण वगैरह पर्वोमें, सर्व शक्तिसे महादानादिक करते हैं । इसलिये श्रावकको भी पर्वके दिन विशेषतः पालन करने वाहिये। पर्व इस प्रकार बतलाये हैं__ अठठमि चउद्दसी पुगिणवाय । तदहा पावसा दहइ पव्वं ॥
मासंमि पव्व छक्कं । तिन्निम पव्वाइपख्खंमि॥१॥ अधुमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या, ये पर्वणी गिनी जाती हैं। इस तरह एक महीनेमें छह पर्वणी होती है। एक पक्षमें तीन पर्व होते हैं। तथा दूसरे प्रकारसे