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________________ AAM ३७६ श्राद्धविधि प्रकरणे चारग निरोह वहबन्धरोग। धणहरणमरण वसणाई॥ पण संतावो अवयसो। विगोबणयाय माणुस्से ॥३॥ ___ जेलमें पड़ना, बध होना, बंधनमें पड़ना, धन हरन होना, मृत्यु होना, कष्टमें आ पड़ना, मनमें संतप्त होना, अपयश होना, अपभ्राजना होना इत्यादिक मनुष्य दुःख है। चिन्ता संतावेहिय । दारिहरुमाहि दुप्पउत्ताहि ॥ ___ लद्ध,ण बिमाणुस्सं । पति केईसु निम्बिना ॥४॥ चिन्ता सन्ताप द्वारा, दारिद्रय रूप स्वरूप द्वारा, दुष्टाचार द्वारा मनुष्यत्व पा कर भी कितने एक दुःखमें ही मरणके शरण होते हैं। ईर्सा बिसाय मयकोहमाय । लोहेहिं एबमाईहिं॥ देवावि समभिभूमा । तेसि कत्तो सुहं नाम ॥५॥ ईर्षा, विषाद, मद, क्रोध, माया; लोभ, इत्यादिसे देवता भी बहुत ही पीड़ित रहते हैं तव फिर उन्हें सुखालेश भी कहां है ? सावय धरंम्प्रि वरहुन्ज । चेड ओ नाण दंसण सपे प्रो॥ मिच्छत्त मोहिम मइयो। माराया चक्काट्टीवी ॥१॥ धर्मके मनोरथ की भावना इस प्रकार करना जैसे कि शास्त्रकारोंने कहा है कि, ज्ञान, दर्शन सहित यदि श्रावकके घरमें कदाचित दास बनू तथापि मेरे लिये ठीक है परन्तु मिथ्यात्वसे मूच्छित मति वाला राजा चक्रवर्ती भी न बनूं। कइमा संविग्गाणं । गीयथ्याणं गुरुण पय मुले। सयणाई संगरहिमओ। पवज्ज संपजिस्सं ॥२॥ वैराग्यवन्त गीतार्थ गुरुके चरण कमलोंमें स्वजनादिक संघसे रहित हो मैं कब दीक्षा अंगीकार करूंगा ? ___ भयभेरव निक्कपो। सुसाण माईसु बिहिन उस्सगो॥ तब तणुगो कइमा। उत्तम चरिम चरिस्सामि ॥३॥ भयंकर भयसे अकंपित हो स्मशानादिक में कायोत्सर्ग करके, तपश्चर्या द्वारा शरीरको शोषित कर मैं उत्तम चारित्र कब आचरूंगा? इत्यादि धर्म भावना भावे।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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