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· ४७२ ] अध्यात्मकल्पम
[बादश किन्तु दूसरोंको डूबा देते हैं ऐसा गुरु पाश्री होता है किन्तु ऐसा होता ही नहीं है, इसलिये यह भाग शून्य है । जो स्वयं तरे वे दूसरोंको तारे या न तारे किन्तु इबावे तो कभी नहीं । तीसरी श्रेणीके साधु स्वयं चाहे दूबते हैं परन्तु दूसरों को तो वैराते हैं ऐसे होते हैं। इस वर्गमें अभव्यादिका समावेश होता है । उपदेश देने में कुछ कमी न रखे, परन्तु एकान्तमें स्वयं विषयकषायका सेवन करे, अथवा वैसे उपदेशका प्रभाव उनके खुदके हृदयपर लगे ही नहीं, उनको सच्ची श्रद्धा नहीं होती। परीक्षा कच्ची होनेपर ऐसे गुरुका योग होता है । ऐसोंका आश्रय लेनेमें बहुत लाभ नहीं इतना ही नहीं परन्तु अनेक प्रकारके शल्य हृदयमें घुस जाते हैं कि जिनका अनन्त भवोमें भी नाश होना कठिन है । ऐसे गुरु कदाच शुद्ध उपदेशक हो फिर भी 'अप्पा जाणइ अप्पा' मात्मा आत्माको जानती है-मनोमन साक्षी है इस नियमानुसार ऐसे गुरुके उपदेशका कुछ प्रभाव नहीं होता है। दंभी, कपटी, मायावी गुरुका भी इस वर्गमें समावेश हो जाता है । अपवाद मार्गसे इस वर्गका आदर करनेपर कितने ही उत्तम जीव इनके उपदेशसे तर भी जाते हैं । चोथे वर्गमें स्वयं डूबे और आश्रितों को भी डूबावे ऐसे पत्थर सदृश उत्सूत्रप्ररूपक शिथिलाचारी कुगुरु समझे। इस वर्गमें स्वयंभ्रष्ट और भ्रष्टाचारकी पुष्टि करनेवाले गोरजी, यति, श्रीपूज्य श्रादिका समावेश होता है। वे संसारके सर्व विषयोंमें आसक्त, धर्मके नामपर ढोंग कर. नेवाले, और धर्मपर आजीविका चलानेवाले हैं। इन चार प्रकारके गुरुओंमेंसे पहिले प्रकारके शुद्ध गुरुको खोजकर उनके उपदेशको ग्रहण करें । गुरुमहाराजका अनुसरण करना हमारा मुख्य कर्तव्य है । त्यागाष्टकमें कहा गया है किगुरुत्वं स्वस्यनोदेति, शिक्षासात्म्येन यावता। आत्मतत्त्वप्रकाशेन, तावत्सेव्यो गुरूत्तमः ।।