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________________ अधिकार] गुरुशुद्धिः [४७३.. प्रात्मतत्त्व प्रकाश करके (परमार्थस्वरूपकी प्राप्ति करके) गुरुसे दी हुई शिक्षामें उचित तल्लीनतासे यह जीव जबतक गुरुत्वको न प्राप्त करले तबतक उत्तम गुरुकी सेवा करनी चाहिये । शास्त्रकार कुगुरुके पांच वर्ग करते हैं । पासथ्थो, उसनो, कुशील, संसत्तो, यथाछन्दो-ये सर्व क्रियामार्गमें तथा ज्ञानमार्गमें भिन्न भिन्न रूपसे शिथिलता प्रगट करनेवाले हैं । इनपर अगले अधिकारमें विवेचन किया जायगा। इनके बारेमें विशेष जाननेको संबोधसित्तरीकी टीका, धर्मदासगणिकृत उपदेशमाला, और उपाध्यायजीकी कुगुरुकी सज्झाय पढ़े। इसप्रकार सद्गुरु और कुगुरुका स्वरुप है । इस मनुष्यभवकी सफलता गुरुके संयोग और पसन्दगीपर है। गुरुको शास्त्रकार इतना अधिक मान देते हैं कि एक तरफ गुरु हो और एक ओर देव हो तो अमुक अपेक्षाके कारण पहिले गुरुको नमस्कार करनेके पश्चात् देवको वंदन कर सके। इसका कारण स्पष्ट ही है, क्यों कि देव तो गुरु और शिष्य दोनोंको एक समान आराध्य है; परन्तु शिष्यकी अपेक्षासे देखें तो गुरु देवको बतानेवाले हैं, जनानेवाले हैं। कितनी ही बार ऐसा दृष्टिराग हो जाता है कि जिससे कितने ही गुरुओंकी आश्रय लेने की वृति हो जाती है जिसके विषयमें सातवें श्लोकमें यथार्थ विवेचन किया गया है। इस जीवके सच्चे उपकारी गुरुमहाराज हैं। वे संसारसे तारनेवाले हैं। उनके उपकारका बदला चुकाना कठिन है । श्री सिन्दूरप्रकरमें गुरुके अधिकारके विषयमें कहते हैं कि पिता माता भ्राता प्रियसहचरी सूनुनिवहा, . : सुहृत् स्वामी माद्यत्करिभटरथाश्वः परिकरः । ६.
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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