SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 588
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरुशुद्धिः अधिकार ] [ ४७१ हैं । स्वार्पण बिना कोई कार्य नहीं हो सकता है, और विशेषतया धर्मकार्यों में तो स्वार्पणकी प्रथम आवश्यकता है। जमानेकी आवश्यकता देखकर सम्पूर्ण कौमका हित करनेवाली, सम्पूर्ण देशका उदय करनेवाली, सम्पूर्ण मनुष्यजाति. को लाभ पहुंचानेवाली शुभ संस्थाओंको स्थापित करो । शास्त्रकार उन क्षेत्रोंके पोषण करनेको कहते हैं, जिससे भविष्यमें कुछ उन्नतिकी आशा हो । साधन धर्मको बहुत पुष्ट किया है। अभी साधकोंको उच्च करने का समय है, जरुरत है, आवश्यकता है । इसप्रकार मननपूर्वक व्यय किये पैसे अवतरण प्रसंग प्राप्त होनेपर इस जीवको अवश्य बचाते हैं यह निर्विवाद है । यह बात वस्तुस्वरूपको प्रत्यक्ष देखनेवाले कह गये है, और विचार करनेसे समझमें आसकती है। इसप्रकार बारहवां देवगुरुधर्मशुद्धि अधिकार समाप्त हुआ। इसमें ऊपर लिखे अनुसार गुरुतत्त्वकी मुख्यता है । एक सद्गुरुके सत्संगसे इस मनुष्यभवमें कितना लाभ होता है वह यहां विस्तारपूर्वक बताया गया है । यह हम जानते ही हैं कि परदेशी राजाको गुरुसे कितना लाभ हुआ था । गुरु दो प्रकारके हैं। एक धर्महीन वृत्तिवाले जिसको हम लोग मिथ्यात्वी कहते हैं, और दूसरे धर्मपरायण वृत्तिवाले । प्रथम प्रकारके गुरुके लिये यह योग्य स्थान नहीं है। यहां जो हकिकत है यह उनपर घटित नहीं होती है। धर्मके गुरुओंको दूसरे प्रकारसे देखा जावे तो वे चार प्रकारके हैं; कितने ही स्वयं तैरते हैं और अपने आश्रितोंको भी सदुपदेश देकर शुद्ध मार्ग बताकर तैराते हैं । ऐसे गुरु सद्गुरु है और इनके आश्रित होनेका ही उपदेश है। दूसरे श्रेणी के स्वयं तैरते हैं
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy