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________________ वस्तुतः यह शुद्ध स्वरूप है । अब यदि तेरी इच्छा हो तो स्त्रियों के साथ भोग-विलास कर, धन एकत्र कर, परदेश पर्यटन कर, मनोवाब्छित भोजन कर, विषयोंका सेवन कर, नौकरी कर और तेरी इच्छा हो तो संसारबंधन तोड़कर, ज्ञानमें लीन होकर, बियालीस दोषरहित आहार लेकर, पंचमहाव्रतका उत्कृष्ट रीविसे पालन करके, मन इन्द्रियोंका संयम करके, अनेक प्राणियोंके सुख निमित्त, वे भी आवें तो उनको भी अपने संग लेकर मोक्ष प्राप्त करने निमित्त मोक्षमार्गकी तैयारी कर । यह सब हकीकत तेरे सामने है किन्तु इसपर विचार करना तेरी इच्छाधीन बात है। एक बात यहां विशेष ध्यान में रखनेयोग्य है और वह यह है कि इन्द्रियजनित सुख और मोक्षसुख प्रतिपक्षी हैं। अतः जहां इन्द्रियसुख होता है वहां मोक्षसुख नहीं होता और जहाँ मोक्षसुख होता है वहां विषयसुख नहीं होता है । ऊपर जो हमने सुखोंका प्रथक्करण करके देखा है उससे ज्ञात होता है कि विषयसुख तो केवल एकमात्र मान्यतामें ही है, कारण कि यह थोडेसे समयतक रहता है फिर भी इसकी सीमा सदैव संकुचित होती है और इसकी वासनायें अति निरस, मलीन और साररहित होती हैं। विषयसुखके वास्तविकपनपर विचार किया हो तो एकदम जान पड़ेगा कि इसमें सेवन करने योग्य कुछ भी नहीं है, परन्तु यह जीव तो इस सम्बन्धमें कुछ भी विचार नहीं करता है । इस सुखका मोक्षसुखके साथ विरोध है । जहाँ एक होता है वहां दूसरा नहीं होता। मोक्षमें किस प्रकारका सुख है उसकी कल्पना भी नहीं की जासकती है, परन्तु स्थूलसे वह अधिक विशेष है । तुम जब युक्लीड ( Euclid ) की एक २५ ....
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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