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________________ १९२ मोक्षसुख और संसारमुख. यदिन्द्रियाथैरिह शर्म बिन्दव द्यदर्णवत्स्वः शिवगं परत्र च ॥ तयोमिथः संप्रतिपक्षता कृतिन् , विशेषदृष्ट्यान्यतरद् गृहाण तत् ॥३॥ " इन्द्रियों से इस संसारमें जो सुख होता है वह बिन्दु के समान है और परलोकमें ( उसके त्यागसे ) स्वर्ग और मोक्षका सुख होता है वह समुद्र के समान है। इन दोनों प्रकारके सुखोंमें परस्पर शत्रुता है । इसलिये हे भाई ! विचार करके उन दोनों मेंसे विशेष एकको ग्रहण कर ।" वंशस्थ. विवेचन-ऊपरोक्त गाथामें इन्द्रियजन्य मुखको भी भोगते हुए रमणीय कहा गया है और मोक्षका सुख भी रमणीय कहलाता है । इसप्रकार दोनों प्रकारके सुखोंमें रमणीयताका समान धर्म है; किन्तु दोनोंमें भेद क्या है यह बताते हैं: संसारसुख और मोक्षसुख दोनोंके बिचमें जमीन आशमान का भेद है । एकको बिन्दु कहें तो दूसरा समुद्रके समान है । दूसरी बात यह है कि जहां संसारमुख है वहां मोक्षसुख नहीं और मोक्षसुख वही होता है जहां संसारमुखकी अपेक्षा भी नहीं होती । सांसारिक मुख अल्पस्थायी है; मोक्षसुख अनन्तकाल तक रहनेवाला है संसारिक सुख बहुत थोड़ा है; मोक्ष सुख अनन्त है । सांसारिक सुख, अन्ते दुःखयुक्त और विनाशी है; मोक्षसुख नित्य है। १ 'स' के बदले कहीं कहीं ‘अस्ति' ऐसा पाठान्तर है । 'तयोऽर्मियोऽस्ति' ऐसा पाठ इससे होता है ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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