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संहायक नहीं मिलते । निन्हवपन, कुगुरुसेवा आदि अशुद्ध सहायकों का दृष्टान्त है । शुद्ध धर्म पर श्रद्धा होना भी बहुत कठिन है और पाश्चात्य संस्कारों के कारण जड़वाद को प्रधान्य माननेवाले के लिये तो इस जमाने में शुद्ध स्वरूप प्राप्त करना और उसको बनाये रखना बड़ा कठिन है । अनेकों प्राणी शुद्ध मोक्षमार्ग को नहीं देख सकते, उसके स्वरूप को भी नहीं जान सकते, और वहां कैसा सुख है यह भी नहीं समझ सकते । स्त्री-पुत्रादिक सिवाय और खाने पीने के मौज. शोक सिवा वहां क्या आनंद होता होगा, ऐसे ऐहिक ख्याल में रह कर अनादि संसार में भटकते फिरते हैं। अहोभाग्य से मोक्ष का स्वरूप जानले तो भी बहुत कम प्राणी समता के स्वरूप को जानते हैं । मोक्षप्राप्ति का साधन समता है, यह ज्ञान का क्रिया में व्यवहार है, और यह स्वरूप जाना जावे तब ही वस्तुतः सुख क्या है ? इस का ख्याल होता है ।
इस सम्पूर्ण श्लोक का यह मतलब है कि यद्यपि संसार के सम्बन्ध के स्वरूप को बतला दिया गया, फिर भी मनुष्य संसार को दुःखभरी नजर से नहीं देखते । संसारी जीव तो मानो आंखे बन्द कर चला ही जाता है, जरासा भी विचार नहीं करता। इसका विचार करो कि सुख क्या है ? सब दूर फिर आओं । राजा के महल को देखो, दिवानों के ओफिसों को देखो; न्यायाधिशों की कोर्टों को देखो, सेठों के वैभव को देखो, युरोपियनों तथा पारसियों के संसार को देखो या बड़े बड़े प्रसिद्ध पुरुषों के चरित्र को देखो; तो तुम को शिघ्र पता लग जायगा कि संसार का एक माल सुख समता में ही है-संतोष में ही है, वर्तमान स्थिति को स्वकर्मजन्य मान कर उसको सम्यग् भाव से व्यतीत करने में और अध्यात्म रमणता में ही है, बाकी सब