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किया। हे निष्फल आशा ! अब तू और कितने नाच नचावेगी।' धनप्राप्ति के लिये मनुष्य क्या क्या करता है उसका विशेष वर्णन दृष्टान्त सहित पांचवें अधिकार में कहा जायगा । यहाँ पर प्रसंग यह है कि मनुष्य धनप्राप्ति का विषय जानता है और इस विषय में अपवाद कठिनता से मिलता है।
धनप्राप्ति के विषय को जाननेवाले मनुष्यों में भी बहुत कम मनुष्य धर्म को जानते हैं, बहुत से तो अखंड प्रवृति में अथवा प्रमाद में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं। आयु से भी दो बरस अधिक का काम हो ऐसे बहुत से प्राणी होते हैं, जो मशीन के समान सबेरे से बहुत रात्रि गये तक अल्पमात्र भी विश्रांम नहीं ले सकते और कितने ही को बैठे पश्चात् उठने तक का अवकाश नहीं मिलता । धनप्राप्ति, उसका रक्षण, उसका विचार, मोजशोक, व्यर्थ विकथा, इन्द्रियों के भोगों आदि में लम रह कर धर्म ऐसा शब्द भी नहीं जानते । पाश्चात्य विचारोंने आध्यात्मिक मार्य प्रजा पर भी अपनी प्रवृति की लहर बड़े जोरसे चलाई है, ऐसे समय में धर्म के आननेवालों का बहुत कम होना स्वाभाविक ही है । ऐसे जीवों में से भी शुद्ध देवगुरु को बतानेवाले, धर्म को पहचाननेवाले बहुत ही थोड़े होते हैं । अनेकों प्राणी धर्म के नाम पर हिंसा करते हैं, धर्म के पर्दे में ढोंग करते हैं, धर्म के नाम पर माया करते हैं, धर्म को धनप्राप्ति का साधन बनाते हैं । संसार से मुक्ति दिलानेवाले, शुद्ध आत्मदशा का स्वरूप बतलानवाले और मन तथा शरीर को कष्टदायक उपाधियों से छुड़ानेवाले श्री जिनेश्वरप्रणीत शुद्ध धर्म का स्वरूप जाननेवाले बहुत कम प्राणी होते हैं । कितने ही प्राणियों को जैन धर्म प्राप्त हो जाने पर भी उनको शुद्ध