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पष्टिशतक प्रकरणं
वसता श्रावकनउ धर्म न वाधइं। किंतु सामुहउं धर्मानुरागी श्रावक पराभव लहइं ॥ ४९॥
[मे.] समय सिद्धांत तेहना जाण जिहां असमर्थ हुइं अनइ जिनमतना अजाण जिहां गाढा समर्थ हुई तिहां धर्म वाधइ नहीं । 5 तिहां गुणानुरागी धर्मवंत पगि पगि पराभव लहइ । हलूपण पामइं ॥४९॥
[सो.] कुमार्गी पापी समर्थ हुंतउ जं धर्मना काज माहि न मिलइ तउ रूडउं । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] मिथ्यात्वी लोक धर्मवंत न हुइ तउ भलउं । तेहनउं 1०कारण कहई।
जं न करइ अइभावं कुमग्गसेवी' समत्थओ धम्मे। ता लढें अह कुजाता पीडइ सुद्धधम्मत्थी ॥५०॥
[सो.] जं न करइ० जं अमार्गसेवी कुमार्गी मिथ्यात्वी खुंट खरड' राजादिकि मानिउ समर्थ हूंतउ धर्मनइ विषइ अतिभाव न 15करई, धर्मना काजमाहि न मिलई ता लढें तु रूडउं । जु धर्मनां काजमाहि मिलइ, माहिल्या मर्म जाणइ तउ ता पीडइ० शुद्ध धर्मार्थी रहइं चाडी भाडीइं करी पीडइ । अथवा. जं ते मिथ्यात्वी समर्थ हुंतउ आपणा धर्म मिथ्यात्व म्लेच्छादिकना मत उपरि अतिभाव न
करइ, बरड बटींगइ जि जउ हुइ तउ भलउ । जउ ते आपणा मत 20ऊपरि घणउ भाव करइ तउ आपणा मतनइं कदाग्रहइं बीजाइहूई
१ 'ए...छइ' नथी. २ जि. उमग्गसेवी, मे. अमग्गसेवी. ३ खरड चाड, ४ माहिला. ५ चाडीवच्चाडीइं. ६ मिथ्यात्वी: