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श्रण बालावबोध सहित श्रावकि बलरहित हुतई न वसिवऊँ । जु काई ठाकुर महूंता प्रधाननउं बल हुइ तउ वसिवउं ॥४८॥
[जि.] जे पुरुष सुद्ध गुरु सेवइ ते शुद्ध गुरु सेवणहार श्रावक असुद्धलोआण मिथ्यात्वाश्रितहूई महासत्तू महावइरी । तम्हा तिणि कारणि ताण सगासे तेहां असुद्ध लोकनइ समीपि बलरहिओ 5 नीबल हूंतइ श्रावकि न विसवउं । किंतु साहम्मीमाहे वसिवउं ॥ ४८॥
[मे.] जे सूधा गुरुनई सेवइं ते अशुद्ध लोक मिथ्यात्वी भ्रष्टाचारीनइं ते महावयरी जेह भणी तेहनई उच्छेदिवा वांछइ। तम्हा तेह भणी भ्रष्टाचारी मिथ्यादृष्टि आश्रित लोक कन्द श्रावकि बलरहित हूंतइ वसिवउं नहीं ॥४८॥
[जि.] एह जि अर्यु प्रकारान्तरि के समयविऊ असमत्था सुसमत्था जत्थोजिर्णमए अविना तत्थ न वदृइ धम्मो पराहवं लहइ गुणरागी ॥४९॥
[सो.] समयविऊ सिद्धांतना जाण धर्मवंत जिहां असमर्थ हुई। सुसमत्था० अनइ जिहां जिनमतना अजाणा5 मिथ्यात्वी भ्रष्टाचारी अतिसमर्थ हुई । तत्थ न वदृइ० तिहां धर्म न वर्तइ । चालइ नहीं। तिहां पराहवं० गुणनउ अनुरागी धर्मी जीव पगि पगि पराभवइ जि लहइ । अपमान जि प्रामइ ॥ ४९॥
[जि.] जिणि स्थानकि समयविऊ सिद्धांतना जाण जैन असमर्थ हुई अनइ वली जिणमए अविऊ सिद्धांतना अजाण०० मिथ्यात्वी लोक जिहां सुसमत्था अतिसमर्थ सबल वसई तिहां
१ मे. पराभवं. २ धर्मार्थी. ३ पराभव.