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, षष्टिशतक प्रकरण
. . अन्नुन्नजंपिएहिं हसिउद्बुसिएहिं खिप्पमाणो अ। .... पासत्थमज्झयारे बला वि जई वाउली होइ ॥ (गा. २२३-२४ ) - [जि.] हे सयण स्वजन ! सुद्धाण संगमे शुद्ध गुरुनइ संजोगि सुद्ध विधि निर्मलाचार धर्मानुराग वाधइ । सो विअ ही जु शुद्धविधिधर्मानुराग अशुद्ध भ्रष्टचारित्रियानइ प्रसंगि निउणाण वि निपुण डाहांईनउ अनुदिन प्रतिदिन गलइ विणसइ । मूर्षनउ धर्मानुराग कुसंसर्गि विणसइ । तेहनउं किसुं ॥ ४७॥
[मे.] सूधी वीतरागनी भाषी विधि तेहनइ विषइ अनुराग वाधइ । सुद्ध खरा चारित्रिया तेहनइ संगमि । हे स्वजन ! ते पुण ०असूधा उत्सूत्रना बोलणहार तेहनइ संगिइं निपुण डाहाइनइ विषइ धम्मनी मति गलइ । अनुदिवस निरंतर ॥४७॥
[सो.] जिहां भ्रष्टाचारनुं बल हुइ तिहां धर्मवंतिइ न वसिवउं । ए वात बिहु गाहे कहइ छइ ।
: [जि.] मिथ्यात्वीमाहे श्रावकि न वसिवउं । इसुं कहइ । 15. [मे.] जिहां कुचारित्रिया वसई रहई तिहां धर्मवंते वसिवर्ड • नहीं । ए संबंध बिहुँ गाहे कहइ ।
जो सेवइ सुद्धगुरू असुद्धलोआण सो महासत्तू । तम्हा ताण सयासे बलरहिओ मा वसिजासु ॥४८॥
[सो.] जे सुद्ध गुरु सुविहितचारित्रिया तेहनी सेवा करई ते २०असुद्धलोआण० असुद्ध मिथ्यात्वी भ्रष्टाचार रहई जे आश्रित लोक ८ छइं तेह रहइं ते महावइरी जेह भणी ते तेहरई उच्छेदिवा जिवांछइ । तम्हा ताण. तेह भणी मिथ्यात्वी भ्रष्टाचाराश्रित लोक कन्हइ
१ रहइं. २ 'जि' नथी.