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________________ श्रण बालावबोध सहित [जि.] कष्ट करइ । आपणपउं दमई । धर्मार्थी लोक द्रव्य गृह सर्वस्वसार चयंति त्यजइं । एतलडं पूर्वोक्त करई । पुण एक उत्सूत्रविषलव न त्यजई, जिणि उत्सूत्रविषलवि करी जीव संसारसमुद्रि बूडइं । तिणि कारणि उत्सूत्र बोलिवउं नही ॥ ४६॥ [मे.] कष्ट करई । आपणपउं दमई । इंद्रिय कशि करई ।। धर्मनइ काजि शत सहस्र धन वेचइं । पणि एक उत्सूत्रनउ लवलेश न. मूंकइं, जेह लगी संसारसमुद्रमाहि बूडइं ॥ ४६॥ [सो.] धर्मवंति सुगुरुनी संगति करिवी । ए वात कहइ छइ । [जि.] अथ सुसंसर्गि धर्मोपराग वाधइ इसुं. कहइ । [मे.] पुण्यवंते सुगुरुनी संगति करिवी । सुद्धविहिधम्मराओ वड्ढइ सुद्धाण संगमे सुअणा। सोविअअसुद्धसंगे निउणाण विगलइ अणुदिअहं ॥४७॥ [सो.] सुद्धविहिः सूधी विधि खरु आचारु खरउ धर्म तेह ऊपरि अनुराग बांधइ । सुद्धाण सं० जु सूधा खरा चारित्रिया । गुरु अथवा खरा श्रावकनी संगति करइ । हे सुजन ! सो विअ० ते 5 खरी विधि खरा धर्मनउ अनुराग असुद्ध भ्रष्टाचारु गुरु भ्रष्ट श्रावकनी संगति करइ ते निउणाग वि डाहाइ रहई गलइ जाइ । निरंतर उछउ थाइ । यत उक्तं श्रीउपदेशमालायां आलावो संवासो वीसंभो संथवो पसंगो अ। हीणायारेहि समं सव्वजिणिंदेहिं पडिकुट्टो । १ जि. मे. सुयणु. २ 'खरा चारित्रिया गुरु अथवा' एटलु नी. ३ असुद्ध जु. ४ नियंतर.
SR No.022082
Book TitleShashti Shatak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Bhandari, Bhogilal J Sandesara
PublisherMaharaja Sayajirav Vishvavidyalay
Publication Year1953
Total Pages238
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size19 MB
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