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पष्टिशतक प्रकरण
जिनधर्मि गाढउ करी आरंभ वर्जिउ छइ । जइ ते आरंभ करइ तउ दुःख लहइ । जिणि कारणि जीव मिथ्यात्व करइ तिणि कारणि जीव सम्यक्त्व न लहइ। जिहां आरंभ तिहां सुख नहीं अनइ जिहां मिथ्यात्व तिहां सम्यक्त्व नहीं । वली धर्म कीजइ तउ अरहंत देवई5 नउ । अनेरउ धर्म न करिवउ । यत उक्तं
श्रोतव्यः सौगतो धर्मः कर्तव्यः पुनरार्हतः । . वैदिको व्यवहर्तव्यो ध्यातव्यः परमः शिवः ॥ १० ॥
[मे.] आरंभ क्षेत्रकरसणादिकइंतउ ऊपनउं जे पाप तेहतर जीव तीव्र दुक्ख पामई । पणि तिहां धर्मनउं अणलहिवउं न हुई । Ioपणि वली जे मिथ्यात्वनउ लवलेशमात्र करइं तेह लगी आवतइ भवि जिनबोधि जिनधर्म न लहई ॥१०॥
[सो.] हिव जे गाढा तप नियम क्रिया करई छई पुण उत्सूत्र प्ररूपई छई तेह आश्री कहई छई ।
[जि.] सघलाई जीवहूई जिनबोधिनउं अप्राप्तिकारण कहइ 15छइ। - [मे.] हिव जे गाढी क्रिया करइ अनइ उत्सूत्र प्ररूपइ तेह आश्रई कहइ । जिणवरआणाभंगंउम्मग्ग उस्सुत्तलेसदेसणयं ।
आणाभंगे पावं ता जिणमयदुक्करं धम्मं ॥११॥ 20 [सो.] उन्मार्ग व्यवहार सामाचारी विरुद्ध उत्सूत्र
श्रीसिद्धान्तनी - आज्ञा विरुद्ध जे लेशमात्र थोडु उपदेश तेहतउ जिणवर० वीतरागनी आज्ञानु भंग हुइ। यत उक्तं श्रीआवश्यके
१ आ गाथा सो. नी बीजी प्रतमां लखावी रही गयेली छे. २ जि. अमग्ग'. ३ 'उन्मार्ग...सामाचारी विरुद्ध ' ने स्थाने 'जिण.' ४ थोडउ.