________________
त्रण बालायबोध सहित
[मे.] जे विरत पाप हूंता निवर्त्या छइं जीव तेही अविरतनउं स्वरूप देषी मनमाहि किम परिताप नाणइं ? काई होइस्यइ ? खेदि । अविरत जीव संसाररूपीआ कूआमाहि बूडता, देषउ, किम नाचई छइं ॥९॥
[सो.] केती वारइं बीजा आरंभ न मूकारई तउ मिथ्यात्व 5 कांई छांड नहीं ? जेह भणी मिथ्यात्वनउ मोटउ अवगुण छइ ते कहइ छ।।
[जि.] आरंभ लगी जीव दुःखी हुइ इसुं जाणवइ छइ । .
[मे.] किवारइं बीजा आरंभ न मूकई तउ मिथ्यात्व काई न छांडइं?
- 10 आरंभजम्मि पावे जीवा पावंति तिक्खदुक्खाई। जं पुण मिच्छत्तलवं तेणं न लहंति जिणबोहिं ॥१०॥
[सो.] वाहण प्रवहण क्षेत्रकरसणादिक आरंभनां जे पाप छई तेह लगइ जीव आवते भवांतरि तीक्ष्ण गाढां दुक्ख प्रामइ । पुण धर्मनउ अणलहिवउं न हुई। जं पुण. पुण जं जिनधर्म ऊपरि द्वेष:5 करतउ मिथ्यात्वनउ लवलेशइ करइ तीणइ आवतइं भवि जिनधर्मइ जि न लहइं। बोधिबीजइ जि दुःप्राप थाइ । तीणइ घणउ काइ संसारि रुलई ॥१०॥
[जि.] आरंभ षड्विधजीवनिकायविनाशनरूपि पापि कीजतइ. हूंतइ जीव अज्ञानी तिक्खदुक्खाई तीक्ष्ण नरकादिकनां दुःख० प्रामइं। जे वली जीवहूई मिथ्यात्वनउ लवलेश छइ तिणि मिथ्यात्वनइ लेशि करी जीव जिनबोधि वीतरागनउं सम्यक्त्व न लहई । एतलइ
१ मूकाई. २ छाडउं. ३ मे. मिच्छित्त. .