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- षष्टिशतक प्रकरणे
जीवहूई वैराग्य ऊपजइ । मिथ्यात्व लगी सांमुहउ जीव संसार वधारइ ॥ ८॥
[मे.] जे जिनवचननउ जाण मनुष्य तेहनइ जि भव संसार तेहनी विरति नथी आवती तउ कहउ न, अजाणनई किम विरति 3 आवइ ? जे मिथ्यात्विं करी हत हण्या जे जीव छइं तेहनइं पासइ रहइ तेहनइं विरति आवतां गाढी दोहिली छइ । इसउ भाव ॥ ८॥
[जि.] जिनधर्म साचउ इसुं जाणी सम्यग्दृष्टिहूई मिथ्यात्वी देखी जकाई मनमाहि ऊपजइ तकाई कहइ छइ ।
विरयाणं अविरए जीवे दळूण होइ मणतायो । 10 हा हा कह भवकूवे बुडता पिच्छ नचंति ॥९॥
[सो.] जे विरत पापतउ निवा' जीव छइं तेहहूई अविरत पाप करता देखी मनमाहि संताप थाइ । हा हा० अहा ! ए अविरत जीव संसाररूपिआ कूआ माहि बूडता देखि किम नावइ ? ए बापडा पाप करी नवनवी गतिइं नवनवे प्रकारि रुलिस्यइ, किम 15थासिइं इम खेद प्रामइं ॥ ९ ॥
[जि.] विरत सम्यग्दृष्टि जीवहूई अविरत मिथ्यात्वी जीव दळूण देखी करी मणतावो मनि संताप हुइ । किसु संताप ए । हा हा खेदे ! रे जीव ! पिच्छ। जोइ संसाररूपीउ कूउ तेह माहे बूडता बापडा किमु नाचई छई ? एतलइ सम्यक्त्वी इसुं जाणइ । जउ ५०संसारमाहे कोई जीव बूडइ नहीं तउ भलउं । तिणि कारणि संसारमाहे बूडता जीव देखी मनि संताप करइं । इसु भाव ॥९॥
१ जि. भवकूपे. २ निवृत्त्या. ३ अविरत जीव. ४ मनमाहि चित्तमाहि.