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त्रण बालावबोध सहित [जि.] अहो भोला श्रावक ! लोकइमाहे इसुं न सांभलिउंजो आराहिज सो न कोविजा ? जे आराधीइ ते न कोपवीइ । लोकई इसुं कहइ। तिणि कारणि मनिज तस्स वयणं तेह आराध्यनउं वचन मानीइ मानिवउं, जइ किमइ वांछित करिवा लहिवा वांछइ ॥ १३३॥
[मे.] लोकमाहि इसउं सांभलीइ । जे आराधीयइ ते विराधीयइ नहीं, कोपवियइ नही । केवलउं तेहनउं वचन मानिवउं । जउ किमइ आत्मानई ईप्सित वांछित करिवा वांछइ ॥ १३३ ॥
[सो.] वली सम्यक्त्वनी दृढाई ऊपरि कहइ छइ ।
[जि.] अथ सम्यक्त्वीनी सम्यक्त्वनिश्चलता बोलइ । दूसमदंडे लोए सुदुक्खसिट्ठम्मि दुट्ठउदयम्मि । धन्नाण' जाण न चलइ सम्मत्तं ताण पणमामि ॥१३३॥
[सो.] दूसम० ईणई दुःखमाकालि पांचमा आरारूपिइ दंडि पडीइ हुँतइ सुदुक्ख० शिष्ट उत्तम धर्मवंत गाढा दुःखिया थिया । दुट्ठ० दुष्ट पापी अधमी चाडादिक तेह रहइ उदय मान महत्त्वा5 लक्ष्मी हुई । एहवइ विरूअइ ऊपराठइ कालि । अथवा सुदुक्खसिद्धम्मि दुक्खउदयम्मि इसिइं पाठि सु अतिशयई दुःखिइ पूर्वभव ऊपार्जीई सीधउं नीपनउं जे दुःखनउ उदय तीणंइ छतइ जे धन्य भाग्यवंतनुं सम्यक्त्व चलइ नही, धर्म ऊपरि लगारइ अभावडि न थाइ, धर्मतु मन डोलइ नहीं, ए तेहवा उत्तम रहइं पणमउं२० नमस्करउं ॥१३३॥
१ सम्यक्त्वदृढाइ. २ जि. दूसमदंदे, मे. दूसमदंडिय. ३ जि. मे. सदुःख. ४ जि. धम्माउ. ५ थाय. ६ रई. ७ ते.